Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
इस प्रकार विशुद्ध मुनि कुमार ने जि- धर्मपानी पत्नी-राजकुमारी को समझाया । उसने भी परम प्रीति से "इसी प्रकार है" कह कर त्रिकरण शुद्धि पूर्वक धारण किये ।। ११३ ॥
इत्थं तथा निखिल सौख्य निधान घाश्या । धन्यः समं कुतुक कोप कुता स्तरायम् ।। सोल्यं स निविशति यावदितः कृतार्थ । स्तावच्चचाल सकलो वणिजा समूहः ।। ११४ ।।
इस प्रकार सम्पूर्ण सुख के निधान धर्म के धारक ही धन्य हैं । निरन्तराय वे दोनों अनुपम सुख अनुभव करने लगे। भाग्य से सर्व सम्पदा माता के समान सेवा करती है। इधर यह बड़भागी धर्म पुरुषार्ष पूर्वक पञ्चेन्द्रिय जन्य भोगों का अनुभव कर रहा था कि उसी समय' सार्थवाह वरिणक् जनों ने प्रस्थान की घोषणा की। चल पड़े ॥ ११४।।
ज्ञात्वापि तेन भरिणतो नपतिः सहेतु । लोकः प्रयालि सकसोऽपि मम स्वचेशाम् ।। मां प्रेषयेति वचनेन नुपः स दुःख । स्तम्मै समयं तनयो स परिच्दा ताम् ॥ ११५ ।।
कुमार को भी यह समाचार ज्ञात हुआ। उसने राजा से प्रार्थना की कि "मेरे साथी वरिपक जन-समूह अपने देश को वापिस जा रहे हैं अतः मुझे भी भेजिये अर्थात् जाने की प्राज्ञा दीजिये" । कुमार की कामना सुनकर राजा को अतीव दुःख हुआ तो भी लोक पद्धति के अनुसार उसे अनुमति प्रदान की। अपनी सुन्दर पुत्री को उसे समर्पण की । नाना पदार्थ एवं परिकर के साथ उन्हें विदा किया ।। ११५ ॥
.
षट् त्रिशस्ति भुवि यस्य सुबरा कोट्यामूल्यं । तवस्य फिल काठविभूषणं च ।। वत्त्वा नपेण बहुधा पसनावि जात । मालिङय साश्रु नयनेन ततो विमुक्तः ॥ ११६ ।।
छत्तीस करोड़ दीनार जिसका मूल्य है । ऐसे सुन्दर हार से पुत्री का कण्ठ शोभित किया । अर्थात् संसार में अनुपम हाय उसे पहनाया। अन्य
[ ६६