Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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विशेषतस्तु नातव्यं मदिरा मांस माक्षिकम् । अनन्त जीव संहारकारि पापेक साक्षिकम् ॥ १०५।।
हे प्रिय ! तीन मकार-मदिरा, मांस और मधु का सर्वथा त्याग करना चाहिए अर्थात् प्राणान्त होने पर भी इनको नहीं खाना चाहिए। ये अनन्त जीवों के पिण्ड होने से उनके नाश के कारण प्रत्यक्ष हैं। एक मात्र पाप के मूल हैं । पाप वर्द्धक हैं ॥ १०५ ।।
जोव योनि समुत्थानं फलानामपि पञ्चकम् । मुञ्च भुक्ति निशायाश्च वरैतानि ब्रतानि च ॥ १०६ ।।
पाँच उदम्बर फल जीव योनि के उत्पत्ति स्थान हैं। प्रस्तु बड, पिप्पलफल, ऊमर, कठूमर और पाकर फल (अंजीर) का सर्वथा त्याग करो-भक्षण नहीं करने का सट ग्रहण करो। साथ ही रात्रि भक्ति का भी त्याग करो। ये श्रावक के चिन्ह हैं । रात्रि भोजन से अहिंसा व्रत का नाश होता है, दया धर्म भ्रष्ट होता है पापास्रय होता है । प्रस्तु, रात्रि में कभी भी चारों प्रकार का माहार नहीं करना चाहिए । इस प्रकार तुम श्रद्धा से इन व्रतों का प्राचरण करो।। १०६॥
जीव घासा नसस्तेय पुरूषान्तर सेवनम् । परिग्रह ममान स्यन राशीष लोधने ।। १०७ ॥
हे कमल नयनी ! हिंसा, झूठ, चोरी, परपुरुष सेवन (प्रश्नह्न) का त्याग करो । परिग्रह संचय की अनावश्यक प्राकांक्षा का त्याग-प्रत धारण करो। ये पांच अणुव्रत अमूल्य रत्न हैं इनकी रक्षा सावधानी से करनी चाहिए ।। १०७॥
पात्रं सर्व शियां पात्र दान भोगीप भोगगाम । संख्यामसंख्य दुर्भाव मेदिनी धेहि मानसे ॥ १०८ ॥
सर्व प्रकार के भोगों-पभोगों की प्राप्ति के कारण भूत उत्तम पात्र दान को प्रतिदिन करो। भोगी-पभोग प्रमाण भी करो। दान पसंख्य दुर्भावों का भेदन करने वाला है । लोभ का नाशक है ऐसा मन में निश्चय करो।। १०८ ॥
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