Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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सर्व संगं परित्यज्य संस्मृत्य गुरु पञ्चकम 1 प्राराधना विधानेन प्रान्ते प्राणोभनं मतम् ॥ १०६ ॥
इस प्रकार व्रतों का पालन कर अन्त काल में सकल वाह्य आभ्यन्तर चौबीस प्रकार के परिग्रह का त्याग कर पंच परमेष्ठी का श्राराधन - स्मरण करते हुए विधिवत् सल्लेखना पूर्वक प्राण छोडना चाहिए। इसे प्राराधना व्रत कहते हैं ।। १०६ ॥
दिग्देश नियमं दुष्टा नथं वण्डोञ्झनं कुरु । सामायिक हताघौघं प्रोबधं दुःख नाशकम् ॥ ११० ॥
इन पाँच व्रतों के समान अन्य तीन गुणव्रत और चार शिक्षा व्रत हैं । जीवन्त पर्यन्त दशों दिशाओं में गमनागमन की सोमा करना दिग्नत है । काल की मर्यादा कर दिनत में संकोच करना प्रर्थात कुछ समय के लिए प्रतिदिन आने-जाने का नियम करना देशव्रत है । प्रयोजनीय श्रनुपयोगी व्यर्थ के कार्यों का त्याग करना मनर्थदण्डव्रत है । इन तीनों दिग्व्रतों को भी धारण करो । प्रनन्त पाप समूह का घातक सामायिक शिक्षा व्रत स्वीकार करो, सम्पूर्ण दुःखों का नाशक प्रोषध या प्रोषधोप वास करना चाहिए ।। ११० ।।
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द्वादश व्रतम् ।
एतेषु गुण शिक्षाथा नियमा पञ्च त्रयश्च चत्वारो गृहस्थानां जिनोदिताः ।। १११ ।।
इस प्रकार इसमें पांच प्रणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये बारह व्रत श्रावकों को जिनेन्द्र भगवान ने उपदिष्ट किये हैं । अर्थात् १२ व्रतों का पालक ही श्रावक कहलाता है | १११ ॥
गुरुणां वचनायेते त्तवा वादी मया पश्चात दापयिष्यामि विशेषा
प्रिये ।
गुरु सन्निधौ ॥ ११२ ॥
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हे प्रिय गुरुदेव के वचनानुसार मैंने तुम्हें ये व्रत बतलाये । इस समय इन्हें धारण करो बाद में गुरु साक्षी में उनके सान्निध्य में विशेष रूप से धारण कराऊँगा ।। ११२ ।।
इत्यादि सा कुमारेण जिनधर्म विशुद्ध षोः ।
ग्राहिता सापि जग्राह तं तथेति त्रिषा तथा ।। ११३ ।।
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