Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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अपने अपरिमित धन को छिपा कर रखता है उसी प्रकार सागर भी अमल्य रत्नों को अपनी कोड में छुपाये था। भयभीत सा यदा कदा उन्हें दर्शा रहा हो, ऐसा जान पड़ता था ।। ४ ।।
निर्माया गिरा स्थाणि मई जनं दाचित । कपूरादि ब्रुमस्पर्शी सुगन्धायास मास्तम ॥ ५ ॥
कभी निर्यापक ध्वनि पाती, कभी उत्सुक करने वाला श्वर सुनायो देता । उधर वायु के मन्द-मन्द झोंकों से कपूर आदि वृक्षों से स्पर्शित सुगन्ध पाने लगी । अर्थात् शीतल सुरभित अगर तगर, कपूर चन्दनादि पादपों का स्पर्श कर पवन अनन्दमय सुरभि विखेरने लगी ।। ५॥
एवं यापद मृत्तावत सार्थवाहः स्मरातुरः । जिनदत्त प्रिया रूपं समालोक्य समाकुलम् ॥ ६ ॥
ज्यों-ज्यों यान बढ़ता जाता, चारों ओर भनोखा दृश्य दिखलाई देता। इस प्रकार का उन्मादक वातावरण कामियों को उत्तेजित करने लगा उसी समय सार्थवाह की दृष्टि जिनदत्त की रमणी पर जा पड़ी। क्या था नयनपात मात्र से वह उसके रूप- लावण्य पर मुग्ध हो गया। स्मर वेग से उसे पाने को मातुर हो उठा ।। ६ ।।
भोजनं शयनं पानं वचनं कार्य चिन्तनम । तन्मुखाम्भोज सक्तस्य सकले ज्वलनायितम् ॥ ७ ॥
कामबाण से बिंध सार्थवाह श्रीमती के मुखाब्ज पर प्राशक्त हो सब सघ-बघ भुल गया । उसे भोजन पान, शयन, वार्तालाप करना, कुछ भी कार्य विचारना अग्नि ज्वाला की दाह के समान पीड़ा कारक हो गये । अर्थात् समस्त दैनिक क्रियाएं कष्ट दायक हो गयीं। किसी भी कार्य में उसे शान्ति या चैन नहीं पड़ता 1 लगता मानों चारों ओर धनञ्जय ही प्रज्वलित हो रही है ।। ७ ।।
समोरयन्ति कामाग्निं वेला वन समोरणा: । तस्य तां ध्याय मानस्थ शून्यस्येव दिवानिशम ।। ८ ।।
वह रात-दिन उसी का ध्यान करने लगा। उसकी कामाग्नि को सागर की शीतल वायु-वेलावन को सुगन्धी भरा पवन मौर अधिक से १०२ ]