Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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जायते येन येनेह हेतुनाऽसुमता हतिः । तत दर्जये बाले रवं येन स्थानिष्तुषो वृषः ॥ ११ ॥
हे बाले ! संसार में जिन जिन हेतुओं से जीवों का घात होता है उन-उन समस्त काररणों का त्याग करो जिससे तुम्हें निर्दोष अहिंसा धर्म को प्राप्ति हो । यही धर्म निर्दोष है ।। ६१ ।।
पत्र चामुत्र सौख्यानि भुञ्जते मानि देहिनः । कृपा कल्प लता तानि सूते सर्वाणि सेविता ॥२॥
तीनों लोकों में जीवों को जो भी सुख भोग मिलते हैं या हो सकते हैं उन समस्त सुखों को यह धर्म रूपी कल्पलता सेवकों को प्रदान करती है। अहिंसामयी धर्म से समस्त सांसारिक सुख उत्पन्न होते हैं ॥१२॥
विनायः सीप भातु न भू रंगुलरियम् । शक्याः सुमुखि संख्यातुन गुणाः करूणा श्रया: ।। ६३ ॥
हे प्रिय, कदाच मुविस्तृत गगन को एवं भूमि-मण्डल को अंगुलियों से मापा जा सकता है किन्तु करुणा के पाश्रय से प्रसूत मुरखों की गणना करना अशक्य है । अभिप्राय यह है कि क्वचिद कदाचित असीम प्रकाश भू को माप कर ससीम किया जा सके परन्तु अहिंसामयी धर्म के निमित्त से उत्पन्न गुणों की गणना करना शक्य नहीं है ।। ६३ ।।
करभोर परित्यज्य प्राणि त्राणं न विद्यते । धर्मः शर्मकरः प्रोक्ताः न च सोन्मंजिनेन्द्रत: ॥१४॥
हे दीर्घ उरु ! संसार में प्रारिण रक्षा से बढ़कर शान्ति देने वाला कोई भी अन्य धर्म नहीं है। इस धर्म का प्रतिपादन जिनेन्द्र देव के सिवाय अन्य किसी ने भी नहीं किया ।। ६४ ॥
नानानुष्ठान युक्तापि नादया शस्यते किया। कामिनीव धृताशेष भूषणा कुलटा फिल ।। ६५ ।।
कितने जप तप व्रत नियमादि अनुष्ठान क्यों न हों यदि दया रहित हैं तो प्रशंसनीय नहीं हो सकते । क्या कुलटा नारी पलिब्रता कामिनी के समान वेशभूषा धारण कर गोभा पा सकती है ? कभी नहीं । उसी प्रकार जीव दया विहीन व्रतादि अनुष्ठानों का कोई महत्व नहीं ।। ६५ ।।
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