Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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भव्य जीवों को मुक्ति दिलाने वाला है उसे स्वीकार कर सेवन करो समस्त अष्टों की सिद्धि कराने वाला है, तुम इसे धारण करो ॥८१॥
सम्मतिः ।
प्रदे देवता बुद्धिरगुरो गुरु प्रतस्वे तस्व संस्था च तथा वादी जिनेश्वरः ॥ ८२ ॥
प्रदेव में देव बुद्धि रखना, अर्थात् रागी द्वेषी को देव मानना, कुगुरु या प्रगुरु को गुरु मानना, प्रतत्त्व में तत्त्व श्रद्धा करना यह मिथ्यात्त्व है । ऐसा जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा गया ॥ ८२ ॥
सुभ्र विभ्रांत वेतस्का देहिनो देवता दिषु । वासयन्ति हि सप्तापि नरकारिण निरन्तरम् ॥ ८३ ॥
संसार में जो प्राणि देवता आदि के विषय में इस प्रकार भ्रान्त चित्त हैं अर्थात् विपरीत मानता रखते हैं, वे निरन्तर सात नरकों के पात्र होते हैं, नरक पर्याय में जाते हैं ॥ ८३ ॥
लोकद्वयेऽपि यानीह सन्ति दुःखानि सुन्दरी । जायते भाजनं जन्तु स्तेषां मिथ्यात्व मोहितः ॥ ८४ ॥
हे सुन्दरी उभय लोक दह लोक और परलोक में जितने भी दुःख हैं विपत्ति हैं वे सर्व संकट प्राणियों को मिथ्यात्व के उदय से प्राप्त होते हैं ॥ ८४ ॥
मियात्व से मोहित जीव चारों गतियों के अपार दुखों के भाजन होते हैं ।
निःशेष दोष निर्मुक्तो मुक्ति कान्ता स्वयम्बरः । लोका लोको हलसानो देवोस्तीह जिनेश्वरः ।। ८५ ।।
हे प्रिय ! सुनो, जिनमें जन्म मरणादि दोष नहीं हैं, जो सम्पूर्ण दोषों से रहित हैं, अपने पूर्णज्ञान- केवलज्ञान द्वारा लोकालोक को युगपत देखते - जानते हैं एवं मुक्ति रमा के स्वयंबर मण्डप - समवशरण में विराजमान हैं, वे ही यथार्थ - सच्चे देव हैं ।। ८५ ।।
श्रम्ये ततो विशालाक्षी राग द्वेषादि कल्मषः । दूषिता न भक्त्याप्ताः कृतकृत्या विरागिणः ।। ८६ ।।
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