Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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विधिरेवायवा विश्व धियं विस्मयावहम् । विदधाति नरस्तत्र केवलं याति साक्षी साम् ॥ ७७ ॥
अधिक क्या, भाग्य ही संसार में प्रलौकिक विचित्र पाश्चर्य जनक क्रियानों को सम्पादन किया करता है मनुष्य तो केवल मात्र उसमें निमित्त होता है, साक्षी बन जाता है ।। ७७ ।।
इत्यादि वह संभाव्य कुमाराय कृपावरी । वितीर्ण भूभजा तस्मै सोप्यमं स्तोपरोषतः ।। ७८ ॥
इस प्रकार अनेकों तर्क-वितों से निश्चय कर राजा ने उस कृशोदरी पुत्री को सानुरोध कुमार को देने का निश्चय कर लिया ।।७।।
विषाय विधिना तस्याः कुमार: पाणी पीडनम् । पञ्चेन्द्रिय सुखं तस्थौ भुनानः सहितस्तया ।। ७६ ॥
शुभ मुहूर्त, लग्न मोर दिन में नृपति ने अपनी कन्या का उस बुद्धिमान, गुगशाली, रूपयौवन सम्पन्न कुमार के साथ सोल्लास पाणिग्रहण संस्कार किया । कुमार भी उस अद्भुत सुन्दरी राजकुमारी को पाकर परम संतुष्ट हुआ । राज प्रासाद में ही उसके साथ पञ्चेन्द्रिय जन्य सुन्दर भोगों को भोगने लगा ।। ७९ ।।
छायेष सापि तस्याभूद विभिन्ना मनस्विनः । चक्रेते नापि विज्ञात जैन धर्म क्रमादिति ॥८०॥
जिनदत्त श्रेष्ठ श्रावक था, जिनधर्म पर उसकी अकाट्य श्रद्धा थी किन्तू नपति वैष्णव धर्मी था। अतः कन्या भी उसी धर्म की अनुयायी श्री। परन्तु पतिभक्ता होने से छायावत् उसका अनुकरण करती थी। पति के अभिप्रायानुसार उसकी क्रियाएँ थीं। एक दिन कुमार ने कहा प्रिय, जैन धर्मानुसार चलना योग्य है । उसने कुमार से जैन तत्त्वों को ज्ञात किया ॥ ५० ॥
मिथ्यात्वं त्यज तन्वंगी संसारार्णव पातकम् । भन भव्य जनाभीष्टं सम्यवस्वं मुक्ति हेतुकम् ।। १ ।।
एक दिन कुमार समझाने लगा, हे तनुदरी, तुम मिध्यात्व का त्याग करो, यह मिथ्यात्य संसार रूपी सागर में डुबोने वाला है। सम्यग्दर्शन
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