Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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पारी पारी से प्रत्येक घर से एक-एक मनुष्य जाता। एक दिन नापिता नाई उस वृद्धा के आया, जिसके कुमार ठहरा हुआ था, वह नौकर बोला "हे माता श्राज तुम्हारी पारी है।" उस समय कुमार भी के पास बैठा हुआ था || १२ ॥
उस वृद्धा
सानिशम्य
वचस्तस्य रूररेव करूणं तथा । वयसां शल्यितं चेतो यथाङ्गरण फरमादिताम् ।। १३ ।।
वृद्धा उस वचोहर के बचन सुनते ही बिलख उठी, करुण रूदन करने लगी। उसका हृदय अंकुश से वेधित के समान चीत्कार कर उठा । श्रांगन में सर्प देखकर जैसे भय होता है उसी प्रकार वह भयातुर हो दन करने लगी। १२॥
हे धातर्भतं शून्याहं हताशः दुःख पूरिता । सन्दर्शनेन जीवामि सुत वक्त्रस्य केवलम् ।। १४ ।।
हे भगवन ! मैं पति विहीन हूं, मेरी आशाएँ निराश में परिणत हो चुकी हैं, दुःख से पीडित हूँ तो भी केवल पुत्र का मुख देखने मात्र से जीवित हूँ ।। १४ ।।
सह तेन तदप्येष विधाता विदधे किमु । इत्यादि विलपन्ती सा तेनावाचि महात्मना ।। १५ ।।
इस समय कुटिल भाग्य ने उस पुत्र के साथ भी यह क्या स्वांग रचा, आज वह भी काल कवलित हो जायेगा । इस प्रकार करुणा जनक रुदन सुनकर वह महामना कुमार इसका कारण पूछने लगा || १५ ॥
समग्र दुःख संभार लोला मातर्मध्यपि सत्येवं पुत्रे किमिति
वह बोला, हे माते मैं तुम्हारे समस्त दुःखों को नष्ट करने में समर्थ हूँ, मेरे रहते हुए अपने पुत्र के लिए क्यों इस प्रकार विलाप करती हो ।। १६ ।।
लुष्टनसंपटे । शेदिषि ।। १६ ।"
श्रहं तत्र गमिष्यामि त्वं तिष्ठ सुखिताम्बके । तयाभारि युवां पुत्र वाम दक्षिण चक्षुषि ।। १७ ।।
तत् कस्य सह्यतां नाशः किञ्चकामा कृतिर्भवान् । कुल केतु महा सत्यो मत् प्राणरपि जीवतु ॥ १८ ॥
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