Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
( चतुर्थ - सगं )
श्रथ
प्राप्तौ
पोराशेः रूपान्तं
क्रमयोगतः ।
ताव प्रास्त श्रमौ शोत वेला वन समीरणौ ॥ १ ॥ कृत्वा पुजादिकं तत्रारूढौ पोतं शुभे दिने प्राप वेगान्तटं सोऽपि प्रेरितः शुभ वायुना ।। २ ।।
शीघ्र ही समस्त साधनों सहित सागर के किनारे जा पहुँचे । जहाज ठहर गये । इधर कुमार पिता के साथ श्रम दूर करने तट पर उतर गया । शीतल वायु के धीमे भोकों ने उनकी थकान दूर की। नित्य नियमानुसार जिन पूजनादि की । पुनः शुभ बेला में जहाज पर आरूढ हुए । अनुकूल पवन होने से शीघ्र ही दूसरे तट को जा पहुँचे ॥ १-२ ॥
ततो यतीर्थ हृष्टौ तौ झगित्येव समागमस् । प्रविष्टौ च तते द्वीपं पूर्वोदित ममा
जनः ॥ ३ ॥
J
दोनों श्रानन्द से शीघ्र ही जहाज से उतर पड़े द्वीप में प्रवेश किया। इन लोगों द्वारा पूर्व देखा गया || ३ |
और उस सिंहल निर्दिष्ट द्वीप को
प्रावासिता जनास्तत्र बहिरन्त यथा यथम् । कुमारः आवकं मन्ये बृध्येकस्या ग्रहे स्थितः ॥ ४ ॥
उस द्वीप में सर्व सार्थवाह के साथी यत्र तत्र यथा स्थान ठहर गये अर्थात् पडाव डाल दिया किन्तु कुमार को एक बृद्धा माँ ने उत्तम श्रावक समझ कर अपने घर में बड़े प्रेम से ठहराया ॥ ४ ॥
विविक्ताहार पानादि बुध्या सार्थेश सम्मता: 1
क्रियादिकं ततः कर्त्त प्रवृत्ताः सकला जनाः ॥ ५ ॥
क्षुधा तृषा से संतप्त सभी जन सार्थवाह की आज्ञानुसार स्नानादि क्रियाओं में संलग्न हो गये || ५ |
योग्य राजा पुरस्तस्या मेघवाहन संज्ञितः । विजया कुक्षि संभूता तस्सुता श्रीमतोत्यभूत् ॥ ६ ॥
इस नगरी का राजा मेघवाहन था। उसकी महिषी रानी का नाम विजया या विजया के उदर से प्रसूत श्रीमती नामकी कन्या थी ।। ६३
L હણ