Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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प्रानन्द से सोती रही क्योंकि वेदना का शमन हो चुका था अत: गहरी निद्रा में निराकुल हो सोतो रही ।। ५० ।।
प्रयद्धाथ तत: प्रातः पबनेन धुतांशुका। नीलाम्ज रेण गभग रस क्लय मुषा स्त्रियाम् ।। ५१ ॥
प्रभात काल हा । शीतल पवन से उसके वस्त्र पताका से उड़ने लगे मानों उसे जगा रही हो पवन । नील कमलों की पराग वायू में मिश्रित हो स्त्रियों के श्रम को अपनय कर रही थी ।। ५१ ॥
उत्थिता चिन्तयामास किमिदं ननु कारणम् । सुखितानि ममाङ्गानि येनामूदुदरं लघ॥ १२ ॥
उसी समय राजकुमारी को निद्रा भंग हुयी। आज उसे तन्द्रा नहीं थी अपितु स्फति थी वह विचारने लगी या कारण मेर समस्त अङ्गों में सुख संचार हो रहा है, उदर भी हल्का हो गया-पतला हो गया ।। ५२ ।।
उत्साह कोऽपि सम्पन्नो गतो व्याधि दुरन्तकः । दुःखान्त दायको नून मयमात्र महाभुतः ॥ ५३ ॥
प्राह ! यह पुरुष कोई उत्साह सम्पन्न है, इसी के प्रभाव से मेरी व्याधि नष्ट हुयी है । दुरन्त, दुखान्त मेरा रोग दूर करने वाला निश्चय से यही अद्भुत महानुभाव है ।। ५३ ।।
सत्येव नत्व सामान्ये केचिदेवं विधा भवि। परोपकारिणः सन्ति ग्रहार भानुमानिव || ५४ ।।
संसार में इस प्रकार के पराक्रमी परोपकारी कुछ ही जन होते हैं । वे रवि किरणों के समान अपने गृहों का उद्योतन करते हैं ।। ५४ ।।
किचास्य वर्शनादेव ममानन्द स्तधामनि । यथामृत रसेनेल संसिक्ता सर्वतस्तनुः ।। ५५ ।।
वस्तुतः इस विभूतिरूप मानव को देखते ही मुझे इतना नानाद हुमा मानों अमृत रस से ही मेरा सम्पूर्ण शरीर अभिसिचित कर दिया गया हो । ५५ ।।
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