Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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इस प्रकार सुनकर बहु विश्वस्त हो गई भय मधुर हास में परिगात हो गया । पुनः यथाविधि समस्त वृत्तान्त कुमार ने उसे सुनाया । बहुभी शिर धुनती मुस्कुराने लगी। दोनों ही प्रसन्न हुए ।। ६१ ।।
श्रन्तरेऽत्र
तदध्यक्ष
समायातः तदुदन्त तथालोक्य समुवाच
इसी समय उसका रक्षक भूख से व्याकुल वहाँ आ पहुँचा, किन्तु कुमारी को निरोग देख दौड़ता हुमा राजा के पास गया और नृपति से बोला ।। ६२ ।
बुभुत्सया । महीपतिम् ॥ ६२ ॥
यथा वर्द्धस्थ राजेन्द्र दिष्या दोष विवजिता ।
प्रभूत सुता महाबोर : कुशली सा च तिष्ठति ।। ६३ ।।
हे राजेन्द्र ! आप वृद्धि को प्राप्त हों, राजधी बढ़े, देखो भापकी सुकुमारी कम्मा मन्तिोष रहित हो गई है। महावीर के साथ सकुशल विराज रही है ।। ६३ ।।
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इत्याकर्ण्य अगश्मासौ चत्वात् प्रचुरं प्रारुह्य हस्तिनं वेगां ज्जनः कतिपये
यह सुसमाचार सुन राजा परम प्रमोद से उछल पडा । वह शीघ्र ही गज पर सवार हुआ । अपने कुछ लोगों के साथ वहाँ प्राया और यथा समाचार पुत्री को शान्त एवं सुखी पाया । उसी समय कुमार को 'प्रचुर धन राशि प्रदान कर सम्मानित किया ।। ६४ ।।
धनम् । रतौ ॥ ६४ ॥
अभ्युत्तस्थे भूपस्तेनाऽपि हृष्टेन सप्रसादं
कुमारेण दृष्टि गोचरमागतः । बिलोकितः ।। ६५ ॥
कुमार ने भी सम्मुख भाकर नृपति का स्वागत किया । श्रानन्द से राजा को निहारा ।। ६५ ।।
उपविष्टस्ततो राजा तां ददर्श स्व बेहजाम् । राहुनुनेय निभुक्तां पार्थखेन्दु तनुं
यथा ।। ६६ ।।
संतुष्ट एवं प्रमुदित राजा माराम से यथा स्थान बैठा और अपनी देहजा-पुत्री को देखा मानों राहु के ग्रास से बच कर पूर्णिमा का चाँद ही उदित हुआ हो ।। ६६ ।।
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