Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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तदालोक्य स्मितं तेन मनाम् विदित हेतुना । निजंगाम ततो मन्दं व दनाद्भटाफरणा ॥ ४५ ॥
उसे देख कुमार मुस्कुराया कुछ हेतु उसे विदित हो गया इसी से प्रसन्न हुआ, उसी क्षण विशाल फणधारी नागराज धीरे-धीरे उसके मह से बाहर निकला ।। ४५ ।।
क्रमेण च तत: काले काल दण्ड इवापसः। निष्चकाम महाभोगो भुञ्जाक्षो भीषणफर्णा ॥ ४६॥
उस समय वह साक्षात् दूसरा यमराज ही था वह क्रमशः भीषण नाग भोजन के लिए इधर-उधर संचार करने लगा ॥ ४६ ॥
तत्तरूपतः समुत्तीर्य समारहयापरे शनैः । दशतिस्म शिरोदेशे यावन्तत्र स्थित शवम ॥४७॥ ताववागत्य बेगेन निहतो हिर्दयोभितः । तथा यथा पपातार सा बष्ट खण्डो महीतले ।। ४८ ।।
धीरे से कुमारी की शय्या से उतरा और दूसरी शय्या पर जा चढ़ा, उस पर स्थित शव के शिर पर जैसे ही उसने फरा मारा कि उसी समय सचेत सावधान कुमार ने तलवार की तीक्षग धार से निर्दय हो उसे मार डाला, पाठ टुकड़ों में विभक्त हसा वह सर्पराज भी भमि पर जा गिरा । अर्थात् उसके ८ टुकड़े कर डाले ।। ४७-४८ ॥
भूषा करडिका मध्य यतिनं से विधाय सः। अपनीय शबं कोशस्थापितासी: सुखं स्थितः ।। ४६ ।।
उसने कुमारी के आभूषणों का पिटाग उठाया और उसमें उन सप खण्डों को बन्द कर रख दिया । शव को वहाँ से हटा दिया । तलवार को म्यान में रख दिया । स्वयं कृत कर्म सुख से विराजमान हो गया अर्थात् पाराम से सो गया ।। ४६ ।।
कन्यकापि गते व्याधौ सुखिताभूत् कृशोदरी। सुष्वाप च समुद्स निराकुल तनुस्तदा ॥ ५० ॥ व्याधिविहीन कन्या भी सुख निद्रा में निमग्न हो गई। वह कृशोदरी