Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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इत्यालोच्याप रोधेन महता जननी तदा । भरिता तेन सावादीत् महा सत्त्वंव मस्त्विति ।। २३ ।।
इस प्रकार तर्कणा कर उसे स्वयं जाने का प्राग्रह किया उस वृद्धा माँ ने बहुत कुछ रोकने को वेष्टा की किन्तु उसे दृढ़ निश्चय देख उसे कहना पड़ा कि "हे महासत्व ऐसा ही हो" अर्थात् जाश्रो ।। २३ ।।
ततः स्नातोनु लिप्सश्च सर्वाभरण भूषितः । पुष्ट तांबूल सद्गन्ध दिव्य वस्त्र विराजितः ।। २४ ।।
तदनन्तर कुमार ने स्नान कर चन्दनादि सुगंधित द्रव्यों का लेप किया, वस्त्राभूषण धारण किये, ताम्बूल भक्षरण किया, दिव्य सुगन्धित वस्त्रों से सुसज्जित हुआ || २४ ।।
व सुनन्द कृपारणाभ्यां भ्राजमान भुजं द्वया । विद्याधर कुमारो वा प्रतस्थे राजवर्त्मनः ।। २५ ।।
दोनों भुजाओं में कृपाण धारण की, नारायण के समान शोभाधारी श्रथवा विद्याधर कुमार के समान प्रसन्न चित्त वह निर्भय कुमार राज मार्ग में चल पड़ा ।। २५ ।।
कौ तुकाक्षिप्त चेतोभिदं दुसौ सकलैर्जनः । प्रासाद शिखरा हट नारी भिश्व यथास्मराः ॥ २६ ॥
वह मार्ग में नाना प्रकार कौतुक करता बढ़ रहा था, उसे देखने नर-नारियों की भीड़ लग गयी। महिलाएँ अपने-अपने प्रासादों-मकानों की छतों पर जा चढ़ी, शिखरों पर चढ़ कर देख रही थीं मानों कामदेव हो क्रीड़ा कर रहा हो ।। २६ ।।
राज्ञाप्यसु समालोक्ध प्राकृताकार बारिम् । पारस्थाः गदिताः कोऽयं क्व चायाति महाद्युतिः ।। २७ ।।
कुमार्याः सदने वस्तुमिति तैः समुदीरितम् । निशम्य स्व शुशोचासौ धिगस्तु मम जीवितम् ॥ २८ ॥
स्वयं राजा भी इसके स्वाभाविक रम्य रूप को देखकर अपने निकट वतियों से कहने लगा "यह कौन है, महा कान्ति पुञ्ज कहाँ से श्राया
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