Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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प्रारु रोह ततस्तत्र प्रथमां मूमिमुन्नताम् । मातुलोके स तत्रासो दिक्चतुष्क शमैः शनैः ।। ३४ ॥
उसी समय वह प्रासाद के उन्नत प्रथम भाग में प्रविष्ट हुआ और शनैः शनैः चारों पोर दृष्टि प्रसार कर निरीक्षण किया ॥ ३४ ॥ द्वितीयस्यामसौ वृष्टा घार पल्यंक सङ्गता। सबिकाशभिक्षाविभ्याम् दृग्म्यां द्वारा व लोकिनी ॥ ३५ ॥
पुन: द्वितीय पंजिल में पहुँचा वहाँ उसने पलङ्ग पर प्रासीन सुन्दराकृति रमणी देखी जो भोजन भिक्षा के लिए मानों पाँखें द्वार पर लगाये हुयी थी ।। ३५ ॥
तत्रालोक्य दिशः सर्वास्तदासनव्यवस्थितः । स तल्पेनल्प कल्यारणा मा जनस्थामुनाच सः ॥ ३६ ।।
वहाँ भी उस कुमार ने चारों ओर दिशामों का अवलोकन किया, पुनः उसके सन्निकट व्यवस्थित रूप में जा बैठा उसकी चैय्या एवं उसे देखा, बोला कल्याण भाजा सुनो ।। ३६ ॥
सापि संभाषणा तस्या मस्तात्मानं मृगेक्षणा। कृत कृस्यमिवात्मानं हृष्टः सोऽपि तरीक्षणात् ।। ३७ ।।
उस कन्या ने भी इस अनुपम लावण्य धारी को देखकर अपने को कृत्य-कृत्य माना, हर्ष से रोमाञ्चित हो उठी, वह मृगनयनी उसके साथ मधुरालाप करने लगी ।। ३७ ॥
ताम्बूलादिकमावाय तया पत्त' विचक्षणा । पृष्ठा प्रारब्धवानेष कथां करां सुषास्पदाम् ॥ ३८ ॥
उसी समय उसने कुमार को ताम्बूलादि अर्पण किया। तथा विचक्षण कन्या ने कुमार से कर्ण प्रिय सुधारस भरी कथा पूछी, कुमार भी कथा सुनाने लगा ।। ३८ ।।
यावत्तस्या: समायाता निद्रामुद्रित चेतसा। हुंकारस्थ विरामेण सुप्तां ज्ञात्योस्थिताश्च सः ॥ ३६॥ रात्रि पा चुकी थी । कथालाप सुनते-सुनते वह मन्या निद्रा देवी