Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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कटाक्षेर्स क्षितः पूर्वं पुरंध्रीणां यदावशत् । उपाहि तिलक स्तेन तिलकत्त्वं वन श्रियः ।। १०८ ।।
तिलक वृक्षों की शोभा अनोखी हो गई, अत्यन्त प्रादर से सौभाग्यवती नारियों ने उन्हें अपने अपने कटाक्ष वारणों से देखा, मानों उन्हें यथार्थं तिलक नाम प्राप्त हुआ। उस वन ने अनुपम शोभा धारण की ।। १०८ ।।
विचकास कुचाभोग सङ्गात् कुरबकः स्त्रियः । यथा तथा कृता सोपि भृङ्गः कुरवकरतदा ।। १०६ ॥
प्रमदाओं के कुचाभोग से कुरबक कुसुम विकसित हो जायँ इस प्रकार की रचना कर दी। अर्थात् कुरवक के सुमनों पर भ्रमर गूंजने लगे || १०६ ॥
प्रमदा मच गण्डूषो वकुलैर्यः पपे पुरा । प्रवृद्ध कुसुमामोदं रुदगी इ
शोभितः ॥ ११० ॥
प्रमदात्रों के मय के गंडूषों (कुल्लाभों ) से जो वकुल म्लान हो गये थे वे फूलों से झूम उठे उन पर मधुकर समूह श्रा गये । मानों कुसुमावली उत्सव मनाने भायी है ।। ११० ।।
कृता शक्तिक माङ्गल्य दोषकं रिव चम्पकः । विशतो रति नाथस्य तत्र पुष्पं विराजितम् ।। १११ ।।
चम्पा सुमनों को मङ्गल दीप के समान द्योतित कर दिया। मालूम
पड़ने लगा साक्षात् रति पति कामदेव प्रा गया हो ॥ १११ ॥
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उत्कर्षो गुण
सम्पर्क जातेनाशुचि जन्मना । यदाप्तं कुकुमेनोच्चं कामिनो मुख मण्डनम् ।। ११२ ।।
उत्कृष्ट गुणों के सम्पर्क से नीच भी श्रेष्ठ हो जाता है जैसे कुंकुम से मण्डित कामिनी का मुख शोभित हो जाता है । उसी प्रकार यह उद्यान हो गया ।। ११२ ।।
चक्रं कण्टकिभिस्तत्र सर जस्के: सुगन्ध गुण योगेन केतर्फ मस्तके
७२ ]
खरिव ।
पदम् ॥ ११३ ॥