Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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उघर विचरण करता हुमा यहाँ पाया हूँ। यह सुनकर उसे उत्तम कुलीन एवं गुणवान ज्ञात कर कुशल क्षेम पूछी ॥ १०२ ।।
उक्त तेन ततो भद्र दृष्टं वन भिवं त्वया । अस्ति कश्चिदुपायो वा येनेदं फल वन्दवेत् ॥ १०३ ।।
कुशल समाचार पूछकर बोला हे भद्र ! आपने इस उद्यान को देखा, क्या कोई उपाय है जिससे कि यह फलबान हो सके ? ॥ १०३ ।।
विज्ञाताशेष यक्षाय बंदोषाचीवशावबः । नन्दनाभं करोम्येष विलम्बेन विमा वनम् ॥ १०४ ।।
सार्थवाही का प्रश्न सुनकर कुमार ने वृक्ष-वनस्पति विज्ञान द्वारा वृक्षों को प्रायु आदि का विज्ञान लगाया, यह वनस्पति शास्त्र में निष्णात था । अतः कहने लगा, मैं अतिशीघ्र इस वन को नन्दन वन के समान रमणीक कर दूंगा ॥ १०४ il
हष्टात्मना ततस्तेन सामग्री सकला कुता। दोहवाविकमादाय कुमारेगाऽपि तत्कृतम् ।। १०५ ॥
यह सुनकर उसे परमानन्द प्रापौर कुमार के कथनानूसार समस्त साधन सामग्री लाकर उपस्थित कर दी। कुमार ने भी अविलम्ब उस सामग्री को लेकर उपवन की काया पलट कर दी ।। १०५॥
पुलके रिव रागस्य स्तबकः क्वाऽपि रेजिरे । अशोकाः कामिनी पाद ताडनेन समुद्गतः ॥ १०६ ।।
उपवन में कहीं पुलकित के समान अरुण स्तवक गुच्छे शोभित हो गये, अशोक वृक्ष कामनियों के पाद प्रहार से प्रमुदित हो झूमने लगे ॥ १.६॥
विभेवस्थाऽपि बाणेम बाणेनेव मनोभवः । पुष्प पुख भृता तत्र वियुक्तानां ममो भशम् ॥ १०७॥
पुस्ख वृक्ष वारण के बिना ही कामियों को काम बाण से विद्ध करने लगे । पूष्पों से भरा उद्यान वियोगियों को बार-बार खिन्न मान करने लगा ।। १०७ ।।
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