Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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लतान्तर बलाचारू सारिका शुक जल्पनैः । उत्कर्ण किसानेक सङ्कत स्ताभिसारिकम् ।। ११६ ॥
लतापल्लवों में छुपी सारिकाएँ (मैंनाएँ) सुन्दर गान गाने लगीबहकने लगीं, तोता-तोतियाँ भी उनके स्वर से होड़ लगाने लगे । अनेकों अभिसारिकामों के संकेत से चकित हो गये। सावधान हो कान उठा कर सुनने लगे ॥ ११ ॥
सरुमूल समासन ध्यानासक्त तपोषनम् । तभक्ति भाविता यात खेचरामर मानवम् ।। १२० ।।
अनेक वृक्षों के मूल में श्रेष्ठ तपोधन साधुराज ध्यानलीन विराज गये । उनकी भक्ति से अभिभूत अनेकों, देव, विद्याधर एवं भूमिगोचरी मानव समन्वित हो गये ।। १२० ।।
नितान्त फलसंभार भज्यमान महीरूहम् । रतान्त श्रम संहार कारि चारू प्रभजनम् ॥ १२१ ॥
अत्यन्त फलों के भार से वृक्षावली झूम गयी मानों टूट कर गिर जायेंगे । मिथुनों के रति क्रीड़ा के श्रम को दूर करने वाली शीतल वायु प्रवाहित होने लगी ॥ १२१ ॥
तथा विघं तदालोक्य चक्र चत्रोत्सवानसौ। पूजयामास सद वस्त्र भूषणाद्यैश्च तं सदा ॥ १२२ ॥
इस प्रकार चैत्र मास-बसंत समान राग रंग से पल्लवित, पुष्पित एवं फलित रमणीक मनोहारी उपवन को देखकर उस सार्थवाह को परमानन्द हुमा । उसने अनेकों वस्त्राभूषणों से उस कुमार की पूजा की अर्थात सत्कार किया ॥ १२२ ।।
राजादि जन विख्यातो नारी नेत्रालि पशुजः । जिनवत्तो भवत्तत्र जिम धर्म परायणः ॥ १२३ ।।
यही नहीं स्वयं उस नगरी के राजा ने भी उसे पुरस्कृत किया। ठीक ही है धर्म परायण पुरुष का कहाँ कौन सम्मान नहीं करता। वह राजा, रामी, पुरजन आदि सबकी आँखों का तारा हो गया अर्थात् सबके नेत्र रूपी भ्रमरों को पा समान प्रानन्द दायक हो गया ॥ १२३ ।। ७४ ]