Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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शोक धूम बनकर बाहर निकल रहा हो । अर्थात् प्रथम संतान न होने का संताप मानों अब धंग्रा की शिखा बनकर शरीर पर छा गई है |८०||
भारंभी मुखे तस्या विशेषात् समजायत । उष्मस्य तथा तस्था महाभागस्य तेजसाम् ॥ ८१ ॥ वह बार-बार जंभाई लेने लगी । श्वास भी उष्ण महा भागी पुत्र के तेज से ही वह उष्ण हो गई हों ॥
प्राने लगी ।
मानों
८१ ॥
पूजोत्सवे जिनेन्द्रारणं दौहृदं विदधे यवनाम्भोज बन्धुवर्गे च
सुधीः । सर्वतः ॥
प्रफुल्ल
८२ ॥
जिनेन्द्र भगवान की परम पूजा करू" प्रर्चना करू नाना प्रकार पूजोत्सव मनाऊँ इस प्रकार के दोहले उसे उत्पन्न हुए। समस्त बन्धु वर्गों में सर्वत्र प्रफुल्लता हो सभी के मुख कमल प्रफुल्ल रहें इस प्रकार के मनोरथ जागृत होने लगे ।। ६२ ।।
पूर्णथ समये साध्वी प्रसूता
सुतमुत्तमम् ।
प्राचीव भास्करा कार प्रभाते बाल भास्करम् ।। ८३ ।।
सभी दोहलों की पूर्ति कर उसने गर्भ समय पूर्ण होने पर उत्तम पुत्र रत्न को प्रसन्न किया। जिस प्रकार पूर्व दिशा रवि को उदित करती है उसी प्रकार उसने बाल भास्कर की शोभायुक्त बालक को जन्म दिया बाल सूर्य की लालिमा से जिस प्रकार रात्रि जन्य अंधकार नष्ट हो जाता है सर्व जीव प्रफुल्ल हो जाते हैं उसी प्रकार सबके मनोरथों को सिद्ध करने वाला आमोद वर्द्धक यह शिशु प्रसवित हुना ॥ ८३ ॥
पुलोत्सव
श्रेष्ठिना बाञ्छिता दुच्चेरधिकं सुवितात्मना । वत्तं वक्त्रमनालोक्य पुत्र जन्मनिवेदिताम् ।। ८४ ।। हे श्रेष्ठिन् आपके पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार की सूचना सुनकर सेठ महा मुदित, श्रानन्द गात्र हो गया उसके हर्ष को सीमा न थी । उसने प्रानन्दातिरेक से पुत्र प्रसव की सूचना देने वाले का मुख भी नहीं देखा सुनने के साथ ही वाञ्छा से अधिक प्रचुर बन, उसे प्रदान किया । श्रर्थात् पुत्रोत्पत्ति का समाचार देने वाले को नाना वस्त्रालंकार प्रदान किये। वह इतना प्रानन्द विभोर हो गया कि "क्या देना क्या नहीं" यह सोच भी नहीं पाया जो पाया वही उसे दे दिया। ठीक ही है
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