Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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स्थितस्तत्र समुद्रत सोव्र वेग हमर स तल्पे कल्पिता नहथ पद्म पल्लव
नाशनाय भवत्तस्य नो वन्या सह विनोवेन न केनापि स रेमे तां तदा
ज्वरः । संस्तरे ॥ ४७ ॥
निद्रया । स्मरत् ।। ४८ ।।
गृह में स्थित होते ही काम ज्वर तीव्रता से उग्र होने लगा । अनेक कमल पत्रों से शीतल शंच्या उसे तैयार की गई अर्थात् काम वेग ज्वर की शान्ति के लिये पद्मपल्लव तल्प शैय्या भी समर्थ नहीं हुई । निद्रा ने मानों रूठ कर उसका साथ छोड़ दिया वह विनोद से भी किसी के साथ हास - विलास करने में समर्थ नहीं हुमा । उसी का चिन्तन करने
लगा ।। ४७-४८ ॥
जलाई श्वन्दन इवन्द्रः कर्पूर: शिशिरंपयः । ज्वलित कामानलस्यास्य संजाता धृत विप्लुषः ॥ ४६ ॥
मलयागिर चन्दन मिश्रित शीतल जल, चन्द्र रश्मियाँ, कपूर लेपन, वर्फ का पानी यादि पदार्थ इस कामदाह से ज्वलित कुमार को कामाग्नि जलाने में घी का काम करने लगे । अर्थात् जितमा शीतोपचार किया जाता उतना ही उसका काम ज्वर अधिक होता जाता ॥ ४६ ॥
वरं मरण मेवास्तु मा बियोगः प्रियैः सह । समाप्यन्ते समस्तानि येन दुःखानि सर्वतः ॥ ५० ॥
प्रहृष्टापि मनो मोहं या ममेत्थं पुष्पेश कुरुषे किं न शरसं हृति इत्यादिकं जजल्पा सा बसं बन्धं एकयापि तथा मेने व्याप्तामिव
वह विचारने लगा, उस कामिनी के वियोग की अपेक्षा मरण ही मेरे लिए श्रेयस्कर है । क्योंकि प्रियजनों के वियोग से उत्पन्न समस्त दुःख मरा से ही समाप्त हो जाते है ।। ५० ।।
ततान तां ।
जर्जराम् ।। ५१ ।।
प्रबन्धसः । जगत्रयीम् ।। ५२ ।।
अदृष्ट भी वह इस प्रकार मुझे संताप दे रही है, जर्जरित कमलो को सरोवर में सूर्यास्त होने पर क्या नष्ट नहीं करता ? करता ही है । इत्यादि प्रकार से वह उस सुन्दरी के वस हुआ नाना प्रकार प्रलाप करने
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