Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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प्रणम्य जिनवत्तेन ततो व्यावय॑ता गृहम् । गतास्ते तो कुमारोऽपि लात्वाप स्व पुरं क्रमात् ॥ १६ ॥
जिनदत्त ने भी सास श्वसुर को यथोचित प्रणामादि किया और अपने घर की भोर प्रस्थान किया। क्रमशः चलकर अपने नगर के निकट पहुँचा उधर वे लोग भी अपने घर वापिस गये ॥ १६ ॥
प्रायातं तं ततो ज्ञात्वा गत्वा तातो महोत्सवः । पुरं प्रवेशया मास सकान्समिव मन्मथम् ॥ १७ ॥
जिनदत्त के माता-पिता अपने पुत्र के आगमन के समाचार प्राप्त कर हर्ष से महा-महोत्सव पूर्वक पुत्र की अगवानी को पाये। नाना शुभ माङ्गल्योत्सव सहित पुत्रवधू सहित पुत्र का पुर प्रवेश कराया । उस समय ऐसा प्रतीत होता था मानों रति सहित साक्षात् कामदेव ही प्रा रहा हो ।। १७ ।।
विशन्तं तं समालाय वामे प्रमवा जनैः । अपितं यामिनी नाथं तरंग रिख वारिधेः ॥ १८ ॥
प्रबेश करते हुए उन नव वर-वधू को देखने के लिए नगर नारियां इस प्रकार उमड़ पड़ी जिस प्रकार चन्द्रोदय होने पर सागर की तरंगे हिलोरों के साथ उमड़ पड़ती है। प्रमदानों के नेत्र जनके सौभाग्य सौन्दर्य का पान कर तृप्त ही नहीं हो रहे थे ।। १८ ।।
मण्डनाविक मुत्सृज्य प्रतिश्श्यं प्रधाविताः । काश्चिदन्या पुनारूढाः प्रासाद शिखरावली: ।। १६ ।।
कोई-कोई तो अपने मण्डन-शृगार को अधूरा ही छोड़कर भाग निकली, कितनी ही अपने-अपने मकानों की छत पर जा चहीं। प्रासादों की शिखरावली भी भर गई ।। १६ ।।
सन्म खाम्भोग संसक्ता लोचना कुच मण्डलम् । काधिच्युतांशुके दृष्टि पातयामास पश्यताम् ।। २० ॥ अंगतो धावमानान्या सुस्त मेखलया स्खलत । टितं हारमप्यन्या गरगयामास नोत्सुका ॥२१॥ उनके मुख कमल को निहारने के उद्वेग में कोई तो कंचुकि बिना ।
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