Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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___ पौराणिक महापुरुषों के चरित्र कथाएँ इसके हृदय में स्थान बनाये सापर्थात् सदा ही महापुरुषों की कथा करता था, विषय-भोगों की हमानों से दूर रहता था । पर स्त्री की वाञ्छा तो स्वप्न में भी नहीं थी। हमन पौर इन्द्रियों पर पूर्ण नियन्त्रण रखता था । अर्थात् सन्मार्ग पर पलना ही व्यसन था ॥ ३१ ।। जिनाच्या ध्यानासक्तः प्रभाले मध्यमेहनि । संयतेभ्यः प्रदानेन स्थकाले भोग सेवया ॥ ३२ ॥
प्रभात काल में भक्तिपूर्वक जिनेन्द्र प्रभु की अभिषेक पूर्वक पूजा करना, पुनः शास्त्र स्वाध्याय, तदन्तर मध्यान्ह में संयमियों को माहार दान करना सायंकाल वैयावृत्ति करना समस्त कार्य समयानुसार विधिवत् करने में तत्पर रहता था ॥ ३२ ।।
यावदास्ते सुखांभोधि मध्यगो बुध वल्लभः । तावदस्यान्यदा जाला शिरोति: सहसा मनाक । ३३ ।।
इस प्रकार धर्मध्यान पूर्वक प्रानन्द से इसका समय जा रहा था कि एक दिन अचानक इसके शिर में दर्द हो गया। यह विद्वानों धर्मात्मानों का प्रिय अपने सुख सागर में मग्न था तो भी अशुभ कर्मोदय ने प्रा घेरा ।। ३३॥ विनोदाय ततस्तस्य वयस्पेन ध्यधीयत । प्रवृत्ताधीश पादात वारणा श्व विमईनम् ॥ ३४ ॥
मस्तिष्क की पीड़ा को शान्त करने हेतु अपने मित्रों के साथ कुछ मनोरञ्जन के लिए चला गया। यह गज एवं अश्व संचालन में पद था। कोड़ा करता हुआ कुछ दूर निकल गया ।। ३४ ।।
देवनं चउरंगानां रणं वास जया अयम | तव सोपि संसक्तः कौतुकात समजायत ॥ ३५ ॥
इसने उस स्थान पर देखा कुछ लोग जुआ खेलने में मस्त हैं । वहीं [ यह भी कौतुक से खड़ा हो गया और कुछ आसक्ति से देखने लगा ।। ३५ ।।
यावत्तत्रैव सज्जाता रति स्तस्य तत: कृतम् । पुतः धूत विशेषेषु कोडनं धन लम्पटे ।। ३६ ॥
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