Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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प्रलोक व्यसनासक्त चेतसा मयका पुनः । तथा कृतं यथा नाहं शक्तस्तात मुखेशरणं ।। ४७ ।।
असत्य व्यसन में मासक्त ऐसा कर दिया कि पिता का मुख देखने के योग्य भी न रहा ।। ४७ ॥
एकेतएव जीवन्तु सता मध्ये महोजसः । एषां जन्म न सजातं मानभंग मलीमसम् ।। ४ ।।
महान पुरुषार्थी, पराक्रमी एक मात्र उन्हीं का जीवन संसार में सार है जिनका जन्म कभी भी तिरस्कृत नहीं हुअा हो । मान भंग से मलीमस जो नहीं हुए वे ही जीवित हैं । पराभव सहित जीवन मरण तुल्य है ।।४।।
काले प्रदीयते यच्च बिना प्रार्थनयान च। वीयते याच दुःखेन तवदत्त सम मतम् ॥ ४६॥
वह विचारने लगा, जो वस्तु बिना याचना किये उचित समय पर दी जाती है। वही देला कि पूर्वक, दुःखित होकर कुछ दिया जाय तो वह दत्ति, नहीं देने के ही समान है ।। ४६ ।।
उक्त्वा न दीयते येषा मुक्तवा वभ तथाल्पकम । कालहानिः कृतावाने सन्ति ते प्रेषिता नराः ॥ ५० ॥
"दान देता हूँ" इस प्रकार कह कर यदि न देवे तो यह कुछ अल्प रूप में दान है अर्थात् कहावत है "दे नहीं तो मोठा बोले" तो ग्राश्वासन तो दिया । समय चुका कर कोई उन याचकों को भेज देता है । अर्थात अभी नहीं कुछ समय बाद पाना। इस प्रकार याचक मान भंग का काट सहना पड़ता है ॥ ५० ॥
तायवेव नरो लोके सुरादि शिखरोपमः । कस्यापि पुरतो याषन देहीति प्रजल्पति ।। ५१ ॥
संसार में मनुष्य तब तक ही सुमेरु के समान उन्नत रहता है जब तक कि वह किसी के सम्मुख "मुझे दो" इस प्रकार नहीं कहता । अर्थात् अयाचक पुरुष सुमेरु पर्वत की शिखा के समान महान और पूज्य माना जाता है।॥ ३१॥
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