Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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इस प्रकार कीड़ा करते हुए भ्रमण कर रहे थे कि सहसा वहां उस विद्याभूषरण कुमार ने एक प्रौषधि देखो जिसको शिखा में धारण करने से वह मनुष्य को अदृश्य कर देने में समर्थ थी । अर्थात् इस औषधि को शिखा में धारण करे तो क्षणभर में वह अदृश्य हो जाये ।। ७६ ।।
प्रति यद्यपि सर्वाङ्ग सौख्यं मम निकेतनम् । तथापि पितुस्तु सृज्य स्थातुमत्र न युज्यते ।। ७७ ।।
औषधि ले ली। अब वह विचारने लगा, “यद्यपि यहाँ ससुराल में मुझे सर्व प्रकार की सुख-सुविधा है, तो भी पितृगृह को छोड़कर यहाँ माता-पिता विहीन होकर रहना उचित नहीं ॥ ७७ ॥
अक्षमेयं वियोगं च सोढुं यद्यपि मामकम् । दन्दह्यते तथाप्येय मानभंगो मनोनिशम् ।। ७८ ।।
हाँ, यह अवश्य है कि इस छाया समान प्रिया का वियोग सहना श्रशक्य होगा तो भी मानभङ्ग का कष्ट उससे भी अधिक है यह अग्नि समान मेरे हृदय को रात-दिन जला रहा है ॥ ७८ ॥
पद्मानया व दद्यापि विहिता वश लायबेसे विषायन्ते विषया 저
दर्शिनी ।
सर्वषा ॥ ७६ ॥
इस पद्मानना के साथ सेवित विषय भोग महा रम्य हैं तो भी पमानित होकर भोगे भोग विषम विष के सदृश हैं ॥ ७६ ॥
तिष्ठन्तामन मां मरम कोशं किल मुध्यते । इत्यादि बहुसंभाव्य तेनादायि महौषधिः ॥ ८० ॥
यहाँ रहने से मुझे सब क्या समझते हैं, केवल जवांई ही तो कहेंगे । प्रिया का त्याग ही श्रेयस्कर है। इस प्रकार नाना ऊहापोह कर उसने उस महौषधि को उठा लिया ।। ८० ।।
शिखा तां ततो ववा सूत्वादृश्य स्ततो नृणाम् । जगाम क्वापि साध्येवं बिललाय तदुज्झिता ।। ८१ ॥
तत्क्षण उसने उस श्रौषधि को शिला में बांध लिया और उसी समय अदृश्य हो उपस्थित जनों के देखते-देखते ही अन्यत्र कहीं चला
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