Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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अनेकों चष्टानों का निरीक्षण करते हुए उन्होंने घर में प्रवेश किया ॥ २६ ॥
तत्राध्यास्य च तुष्कं सगोत्र वृद्धांगना कृतम् । प्रतीच्छति स्म माइल्यं कृत पूर्व जिनोत्सवम् ॥ २७ ॥
उस समय द्वार पर सगोत्रीय दादी-बुना प्रादि वृद्ध नारियां मांगलिक द्रव्यों को लिए प्रतीक्षा कर रही थीं। सर्व प्रथम श्री जिनेन्द्र भगवान की पूजा सामग्री ले प्रभु की पूजा की गई ।। २७ ।।
ततो निवतिताशेष विवाहान्त विषि सुधीः । तारेश इव रोहिण्या समं रेमे तया निशम् ॥ २८ ॥
अनन्तर समस्त विवाह को अन्तिम विधि सम्पादित की गई। सम्पूर्ण विधि विधान के बाद कुमार जिस प्रकार रोहिणी के साथ चन्द्रमा शोभित होता है उसी प्रकार शुभ्र ज्योत्सना समान सुन्दरी विमला के साथ भोग करता शोभित हुा । रमन करने लगा ।। २८ ।।
भज्ञानस्य सुखं तस्य पञ्चेन्द्रिय समाश्रयम् । जग्मु धर्माविरोधेन मुहूर्त मिव वासराः ।। २६ ॥
पञ्चेन्द्रियों के नाना विधि भोगों को भोगता था किन्तु धर्म क्रियाओं का उल्लंघन नहीं करता था । अर्थात् धर्मानुकूल गृहस्थ धर्म का सेवन करते हुए उसके दिन मुहूर्त के बराबर बीतने लगे । अर्थात् एक दिन मानों एक मुहूर्त हो ऐसा प्रतिभासित होता था । ठीक ही है सुख-संभोग का काल जाने में देर नहीं लगती ॥ २६ ।।
विमुखो मुख मालोक्य याचकस्तस्य नो यो । सविवेश सतां वित्त विनयेन महामनाः ॥ ३०॥
वह दानियों में सदा अग्रेसर था, उसके द्वार से याचक कभी भी खाली नहीं जाते थे । अपने विनय गुण द्वारा महामना वह सज्जनों के चित्त में प्रविष्ट हो गया । अर्थात् उसकी नम्रता से सत्पुरुष उसे हृदय । से प्यार करते-चाहते ॥ ३० ॥
हवये परमासेतु रस्य पौराणिका कषाः। पर रामा दिलासाहया न जातु विजितारमनः ।। ३१ ॥