Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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पहने ही उघाड़े प्रा खड़ी हुई। किसी की भागा-दौड़ी में मेखलाकरधनी टूट कर गिर गई। किसी का हार टूट कर बिखर गया किन्तु उस मिथुन के देखने की धुन में उन्हें इनका भान ही नहीं हुभा ॥२०-२१ ।।
मन्या जघानतं धीरा कटाक्षः क्षण भंगना। चित्रेवीयर मालाभि रचयन्तीव भक्तिप्तः ॥ २२ ।। रूपामृतं पिबसस्य नेत्राञ्जलि पुटैः परा।। कौतुकं काम संताप पोडिता जनि मान से ॥ २३ ।।
कोई चित्राम जैसी निर्मिष दृष्टि से कटाक्ष वाए से भेदन की चेष्टा कर रही थी और कोई नेत्र रूपी कमलों का हार अर्पण करती सी चित्राम जैसी खडी रह गई। कितनी ही नेत्र रूपी अञ्जलियों से उनके रूपामृत का पान कर रही थीं। किसी के मन में काम का संताप उत्पन्न हो गया ॥ २२-२३ ।।
प्रयोचवियं धन्या यस्या जातो यमोश्वरः। काचिदूचे स्फुटं काम रति युग्म मदः सखि ।। २४ ।।
कोई कहने लगी यह नारी रत्न धन्य है जिसने ऐसे घर को अपना ईश्वर बनाया । कोई स्पष्ट कहने लगी हे सखि ये वास्तव में काम और रति हैं ।। २४ ।।
समाशतं सतो श्रेष्ठं विलासं सहितामुना। भश्वेति प्ररिपगदयाच्या लाजाअलि मवाकिरत् ॥ २५ ॥
नाना सतियों के चर्चा का विषय उस कुमार पर सौभाग्य शालिनी नारियों ने लाजा (धान की खील) विकीर्ग की । अर्थात् धान की खील प्रमोद की सूचक वर्षायीं । सैंकड़ों विलासों से युक्त तुम नाना भोग भोगो इस प्रकार के प्राशीर्वचन कहने लगीं ॥ २५ ॥
मोट भजनं भालस्य प्रेम जलोब्गमम् । तन्वन् नारी जनस्यैष प्राप स्वं सोस्सयम गहम् ॥ २६ ॥
कोई आलस्य से शरीर को मरोड रही थीं, कोई मटक रही थी, कोई संभाई ले रही थीं, कोई प्रेम रस सिंचन कर रहीं थीं। इस प्रकार
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