Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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विलास हास सज्जल्प तल्प माल्य बिभूषणम् । गतागत ञ्च सर्वेण माकषि रूदहं सुते ॥ ११ ॥
हे बेटी ! श्रृंगार, हास्य, वार्तालाप, शयन, माला भूषा, थानाजाना प्रादि क्रियाएँ कभी भी स्वच्छन्दता से नहीं करना । अर्थात् शीलाचार, सदाचार और कुलाचार को दृष्टि में रखना ॥ ११ ॥
चित्त पत्यु र विज्ञाय माकृथा मान मायतम् । उत्कण्ठिताच मा भूस्त्वं महमभ्यं शुभ दर्शने ।। १२ ।।
हे शोभने हमेशा अपने पतिदेव के अभिप्रायानुसार चलना । अहंकार नहीं करना । हम लोगों के प्रति भी उत्कण्ठा दर्शित नहीं करना किसी प्रकार अपमानित होना पड़े इस प्रकार का कोई भी कार्य नहीं करना ।। १२ ।।
ज्येष्ठ चैवर तद्रामा श्वश्रूषुः विनता भवेः । नर्माचिकसंवद्ध येन केनापि मा कृपाः ॥ १३ ॥
जेठ, देवर एवं जिठानी, देवरानी तथा सास-ससुर के साथ सतत विना रहना अर्थात् विनयपूर्वक व्यवहार करना। किसी के भी साथ हँसी मजाक नही करना । श्रथवा किसी को पराभव करने वाला व्यवहार नहीं करना ।। १३ ।
श्वश्रू मातरिति ग्रहितावेति श्वसुरं नता । प्राणनाथं प्रियेशेति त्वं सुतेति च देवरम् ॥ १४ ॥
विनम्रतापूर्वक सास को माता और वसुर को पिता एवं पति को प्राणनाथ तथा देवर को पुत्र कहकर सम्बोधन करना अर्थात्
कहना ।। १४ ।।
प्राभूतानिसुते
तुभ्यं प्रहेष्यामि सहस्रशः । शिक्षयिस्येति तां माता विरराम सु दुःखता ।। १५ ।।
हे पुत्री तुम्हारी यशोवल्ली बढ़े। मैं हजारों पारितोषिक- वस्तुएँ तुम्हारे लिए यथा समय भेजती रहूंगी। इस प्रकार अत्यन्त दुःख से माँ ने अपनी प्राण प्यारी पुत्री को शिक्षा दे विदा ली ।। १५ ।।
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