Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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इन दम्पत्ति के प्रेम मिलन की बेला पा रही है--विलास काल शीघ्र पाना चाहता है यही सोचकर मानों रवि छिपना चाहता हो—शीघ्र जाना चाहता हो ।। १०७ ।।
निमि मोलत दाम्भोज लोचनानि सरोजिनी । दुःख भारात् प्रियस्यैव तो दशामुपाजग्मुषः ॥ १० ॥
सरोज रवि वियोग से बन्द हुए, कुमुदिनियाँ विहँसने लगी प्रिय वियोग का भार और संयोग की प्राशा इसी प्रकार हर्ष विषाद को कारण होती हैं । १०६ ।।
निशा संभोग श्रृंगार तत्परा हरीणीदृशः । प्रासन गृहे गृहे दूति संल्लाप व्याकुसास्तदा ॥ १०६॥
प्रत्येक घर में निशा संभोग की क्रियाएँ होने लगी सर्वत्र सेविकाएँ शृंगार रस में निमग्न हो मृगनयनी प्रासनादि की व्यवस्था में कोलाहल कर रहीं थी । अर्थात् सर्वत्र सुहाग रात्रि की चर्चा एवं तज्जन्य क्रियाओं को वार्ता चल रही थी । सेविकानों को इसी विषय की प्राकुलता हो रही थी ।। १.६॥
प्रससार नभो मूमौ सन्ध्यावल्लोष बारूणा। काले भोत् खातात द्रक्त फन्दाभो भास्करोभवत् ।। ११०॥
संध्यारूपी वल्ली के वध से प्रारक्त नभोमण्डल हो गया, चारों पोर प्राकाश में लाली छा गई । सूर्य भी रक्ताम्भ हो गया अर्थात् मानों रक्तकन्द भक्षण कर प्रभाहीन हो गया ।। ११० ।।
प्रकाशितं स्वयं विश्व भाकारतं तिमिरारिणा। कयं न शक्यते दृष्टुमिति भास्वान स्तिरोवधे ।। १११॥
चन्द्र की उज्ज्वल ज्योत्स्ना विश्व में व्याप्त हो गई स्वयं सर्वत्र प्रकाश फैल गया। इसके वैभव को कैसे देखना मानों इसी ईर्ष्या से सूर्य अस्त हो गया ।। १११ ।।
प्रयोधितास्ततो दीपा: प्रति वेश्म तमच्छिा । स स्नेहाः सवृशो पेताः पात्रस्पा: सुजना इ ।। ११२ ।।