Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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अन्धकार के भेदन करने वाले प्रदीप घर-घर में जल गये। ये स्नेह से भरे प्रदीप ऐसे प्रतीत होते थे मानों अपने स्नेही के प्रेम मिलन की बधाई देने आये हो । क्योंकि उस नव दम्पत्ति में प्रेम रूपी स्नेह था और इनमें स्नेह-तैल भरा हुप्रा था। ठीक ही है समान स्वभाव वालों में ही स्नेहाधिक्य मंत्री होती है ।। ११२ ।।
कौतुकादिवतं दृष्ट वधूवर युगं तदा। निशा नारी समायाता तारा मौक्तिक भूषणा ॥ ११३ ॥
उस समय कौतुक से इठलाती निशानारी तारागरणों रूपी मोतियों के प्राभूषण धारण कर पाई । क्योंकि वर-वधु को देखने के लिए वह लालायित हो रही थी ।। ११३ ॥
तमा स्तंबेर मेरणेवं मत्वा कान्तं जगज्जवात् । दियाय नमार चन्द्र सिहांशु केशरः ॥ ११४ ॥
कहीं मेरी मृत्यु न हो जाय इस भय से तम अंधकार शीघ्र भाग निकला । क्यों कि प्राकाश रूपी रण में चन्द्र रूपी सिंह सुकेशरी वाणा धारण कर उदय को प्राप्त हो गया ।। ११४ ।।
मन्द मन्द तमस्तोमं व्योमसो मकर रभात् । चन्दन ममेव लिप्तं स्मर नपाङ्गगम् ।। ११५ ॥
शनैः शनै सघन अंधकार मन्द-मन्द गति से प्राकाश से विलीन हुमा चन्द्र की निर्मल वेगशाली किरणों द्वारा कामदेव नृपति का मांगन चन्दन रूपी मद के द्वारा लीपा गया । अर्थात चारों ओर कामदेव को उद्दीप्त करने वाला वातावरण विस्तृत हो गया ।। ११५ ॥
तस क्षीरावस्येव कल्लोलैः सकला विशा। क्षालिता इस भाश्चकैश्चके कुमुद बान्धवः ॥ ११६ ॥
तस समय चन्द्र को शुभ निर्मल-उज्ज्वल किरणें दूध की मांति बिखर गई। ऐसा प्रतीत होने लगा मानों क्षीर सागर को कल्लोलों से समस्त दिशाएं प्रक्षामित हो गई हों, प्रामा व्याप्त हो गई। कुमुददांध व चन्द्र मुस्कुराने लगा ॥ ११६ ।।