Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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होले थे मानों यह "रति-कामदेव के समान योग्य सम्बन्ध है" इस प्रकार अग्नि साधुवाद-पाशीर्वाद ही दे रही है । मैं (भाचार्य) समझता हूं कि धर्म विधिपूर्वक योग्य वर-बधू होने से अग्नि भी उनका यश गान कर रही है ॥ १०२॥
धूमदान क्षणोभवूता स्ते तयो बास्प बिन्दवः । निर्गता वा मनोमान्तः करणा: प्रेम रसोमवाः ॥ १०३ ॥
होम की धूम से उनके नयनों से अश्रु बिन्दु झलकने लगे। वे ऐसे प्रसीत होते थे मानों उनके अन्तःकरण का प्रेमरस उमड़ पड़ा हो ॥१०॥
तदासौ मौक्तिकोहाम माला लंकृत तोरणाम् । तयामावेदिकां प्राप्य भद्रासन उपाविशत् ।। १०४ ।।
तदातर वे, मोतियों को काला ही तोर कारों में लटक रही हैं ऐसे सुन्दर मण्डप के वेदी में प्रविष्ट हो सपत्नीक भद्रासन पर विराजमान हुा । अर्थात् सुन्दर-शुभ प्रासनारूढ़ हुप्रा ।। १०४ ।।
यान्यक्षतानि नार्योर्यः ददिरे मस्तके तयोः। कुसुमानीवसौभाग्य मञ्जर्या स्तामि रेजिरे ।। १०५॥
सौभाग्यवती सीमन्तिनियों के द्वारा तथा सत्पुरुषों द्वारा सुन्दर सुवासित प्रक्षत उन दोनों के मस्तक परं क्षेपण किये गये, वे भूमि पर कुसुम की मजरियों की भांति शोभा को प्राप्त हो रहे थे । मानों इनकी सौभाग्य सम्पत्ति बिखर रही हो ॥ १०५।।
गीत नत्याविक तत्र प्रारब्धं प्रमका जनः । पश्यन्तौ यावदानन्द धाधमग्नी स्थिती तदा ॥ १०६ ।।
उत्तम प्रमदानों-सुभासिनी नारियों द्वारा नाना प्रकार के गीत एवं नृत्यादि प्रस्तुत किये जा रहे थे। उस मिथुन को देखने मानों आनन्द सागर ही उमड़ पड़ा हो ऐसा प्रतीत होता था ।। १०६ ।। निशा विलास संपर्को जायतामेतयोरिह । इतीव मन्य मानेन भानुना स्तादि राश्रितः ।। १०७ ।। शनैः शनैः भानुराज प्रस्ताचल की ओर प्रस्थान करने लगे, मानों
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