Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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दवशं त्यक्त हारापि मुग्धा कापि रतोत्सुका । स्तनाभोग लसञ्चारमन्वान्शु कृत तदभ्रमा ।। ११७ ॥
कोई कामिनी उस समय हारादि छोडकर रति क्रीडा को उत्सुक हो रही दिखाई पड़ती थी, कोई अपने स्तन मण्डल के मध्य चन्दन चित कर भ्रमित सी हो रही थी। अर्थात् चन्दन है या कंचुकी यही उसे भान नहीं रहा ।। ११७ ।।
दूतोधिगंम्मा लापा: सकतात कौतुक: । मुग्धानिधेशिता: शय्यो त्संगे धीशां हादिव ॥ ११ ॥
दुतियों के द्वारा मन्मथोन्माद की कथाएँ सुन कामभोग के लिए प्रातुर हो गई । शरीर कांपने लगा, ऐसा लगता था मानों कोई मुग्धा बलात् शय्या पर प्रासीन करदी हो प्रेम संयोग के लिए ॥ ११८ ।।
अमृतरिय निघौते करिरि पूरिते। जाते तदा करै रिन्दो रम्ये भुवन मण्डपे ।। ११९ ॥
भुवन मण्डप में चन्द्र किरणें अमृत से अभिसिंचत, कर्पूरादि से प्रपूरित के समान हो गईं ।। ११६ ।।
उद्दण्ड काम को दण्ड चण्डो माकान्त विष्टपे । सङ्कत मन्दिर द्वार निषीदद भितारके ॥ १२० ।।
चारों ओर भूमण्डल पर उद्दण्ड-प्रचण्ड काम का राज्य छा गया। अभिसारिकाएँ अपने-प्रपने संकेतित भवनों के द्वार पर सप्रतीक्षा स्थित हो गई ।। १२० ।।
मानिनी मान निशि विधि व्यासक्त वल्लभे । विचित्र रत समदं कथित नवांगने ॥ १२१ ॥
नाना प्रकार रति संमदन से माननीयों का मान मर्दन हो गया, वल्लभा में प्रासक्त कामी विचित्र रति क्रीडा से क्रिया करते हैं। नव यौवन का प्रथम मिलन अनोखा ही होता है ।। १२१॥
स्वत: स्वरूप सम्पत्ति वनिता सक्त योगिनि । दक्ष पण्यांगना लोक वञ्चितग्रामभोगिमि॥ १२२ ॥
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