Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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सान्त मिद तद्रूपं तदा तस्या हृवि ध्रवम् । यत्तस्य दर्शनात्सापि समभुनिश्चला खिला ॥ ६३ ।।
निश्चय ही वह पटस्थ रूपाभा उसके हृदय में संक्रान्त कर गई क्योंकि उसके दर्शन मात्र से ही वह निश्चल खडी रह गयी ।। ८३ ।।
सखो वसन्त लेखास्या जग्राहाचलमुत्सुका। अन्तरेत्र तथा सापि हुं कृत्यैव निवारिता ।। ८४ ॥
उसी समय उसकी सखी वसंत लेखा ने उसका प्रांचल खींच कर पो से सावधान दिया और कह कर उसे गिनारित किया ॥४॥
सा ववर्श या लब्ध लक्षं शून्यं जहास छ। अस्फुटार्थ अजल्पात स्तानेता ज्ञायो तन्मनः ।। ८५॥
उस कन्या को लक्ष्य विद्ध, संज्ञाशून्य, अस्पष्टालाप मादि चेष्टामों से उस चित्र पट पर मुग्ध हुयी ज्ञात कर पिता ने उसके मनोनुकल कार्य करने का निश्चय किया ॥ २५॥
मालोच्य बन्धुभिः सार्ट कार्य मार्य मनोचितम् । संविभक्ता गतास्तेपि सलेखाः श्रेष्ठिना सतः ॥८६ ।।
लोक व्यवहार कुशल विमल श्रेष्ठी ने अपने बन्धुवर्ग, मित्र जन एवं म्य सम्बन्धी जनों को समन्वित कर इस (विवाह) सम्बन्ध में विचार विमर्श किया । यही आर्य जनों को पद्धति है-कुल धर्म की रक्षा करते
हुए कार्य करें । सभी का अनुमोदन प्राप्त कर उसने सुन्दर पत्र के साथ । उस चित्रपट वाहक को विदा किया। अर्थात हम अपनी परम सुन्दरी
कन्या को प्राप श्री के पुत्ररत्न को प्रदान करने में सहर्ष तैयार हैं ॥६॥ है साथ ही कुछ अपने लोगों को समाचार के साथ भेजा । भनङ्गदेश के वसंत तिलक इस नगर में पाकर उन्होंने अपना वृत्तान्त जिनदत्त के पिता को कह सुनाया एवं पत्र-लेख भी अर्पण किया। चिन्तित मनोकामना फलित होने पर किसे हर्ष नहीं होता? अपनी कार्य सिद्धि में कौन मानन्दानुभव नहीं करता? सभी करते हैं।
लेखार्थ मष निश्चित्य जिनदत्तपिता स्वयम् । कृत्वा यथोचितां तत्र सामग्री प्राहिरणोत्सुतम् ।। ७ ।।