Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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इत्यायनेक संकल्प कारिणः सहचारिणा।। विनातं मकरंदेन दृष्ट्या तस्य मनोगतम् ॥ ४२ ॥
इस प्रकार अनेकों संकल्पों में निमग्न कुमार की चेष्टा ज्ञात कर उसके सहबर ने ताड लिया। उसकी दृष्टि से उसके मनोगत भावों को जानकर उसे अत्यन्त प्रसन्नता हुयी। क्योंकि कुटुम्बीजन तो यही चाहते थे ॥ ४२ ॥
विबद्धञ्च घिरादेते फलिता में मनोरथाः। सिक्तश्चायं सुधासेकः श्रेष्ठ संतान पाइप: ।। ४३ ।।
वह मित्र सोचता है, कि, चिरकाल के बाद मेरे मनोरथ फलित हुए हैं । यह श्रेष्ठि पुत्ररूपी पादप-वृक्ष प्राज प्रेमामृत सीकरों से अभिसिंचित हुमा प्रतीत हो रहा है ।। ४३ ॥
स्मित्वा स्वरमुवाचे मे तयंब सले मनः । कि हतं भवतो येन स्तम्भितो वा व्यवस्थितः ॥४४॥
प्रानन्द से गद्गद् हो वह कहने लगा, कुमार, पाप हँसकर अपने भावों को स्वच्छंदता पूर्वक बतलानों-कहो, हे सखे किसने आपके मन को हरा हैं जिससे कि इस प्रकार प्राप स्तम्भित हो गये व खड़े रह गये ? ।। ४४।।
भवानेव विजानातो त्युक्त्वावाय करेण तं । स विवेश जिनापोश मन्दिरं तन् गताशयः ॥ ४५ ॥
"पाप ही जानते हैं" क्या हुमा, इस प्रकार उत्तर देकर उसको हाथ से पकड़ कर, कुमार उस कन्यारूप में आसक्त हुया जिनालय में प्रविष्ट हुमा ॥ ४५ ॥
ततः प्रदक्षिणी कृत्य स्तुत्वा स्तोत्र रनेकशः । जिनां जगाम तां पश्यन्नाकृष्टी क्रममालयं ॥ ४६॥
सावधान हो कुमार ने जिनालय में श्री जिनेन्द्र प्रभु की भक्ति से प्रदक्षिणा कर नाना प्रकार सुन्दर स्तोत्रों से स्तुति की। तदनन्तर नमस्कार कर अपने घर को लौटने लगा, बार-बार उस चित्राम के लिए देखता हा घर आया ॥ ४६ ।।