Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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है जो श्राज प्रकट हुमा है । अन्यथा इसके दर्शन रूपी तिचन से मेरा मन क्यों याद हो आसक्त होता ? ॥ ३१ ॥
अथवा क्वापि कस्यापि पूर्वकर्म विपाकतः । कटिस्येव मनो याति नूनं तन्मयतामिव ।। ३२ ।।
प्रथवा यही सत्य है, कोइ न कोई पूर्वभव के संचित कर्म का विपाक ही उदय आया है तभी तो शीघ्र ही मेरा जीवन तन्मय हो गया। अर्थात् अचानक ही मन इसमें प्रबल हो गया है ।। ३२ ।।
यदीयं भवितातन्वि मूल प्रकृति बजिता । न प्राणधारणोपायं तदा स्वस्य विलोकये ।। ३३ ।।
वस्तुतः यह तन्वङ्गी साक्षात् न मिलो तो मेरा जीवन दुर्वार है । इतना सातिशायि रूप क्या भला मूल इसके जीवन बिना हो सकता है ? अर्थात् श्रवश्य ही कोई जीवित कलिका का यह प्रतिच्छन्द चित्र है ।। ३३०० सचेतनंवेयं कापि काम
ननं
चोरयामासनश्श्विस
चन्द्रास्था
निश्चय से यही चेतना सहित सी प्रतीत हो रही है। अथवा किसी कामलता का रूप है | यदि ऐसा न होता तो किस प्रकार यह चन्द्रमुखी मेरे मन को चुराती ? अवश्य ही कोई अनुपम विद्या है यह ।। ३४ ।।
लतायया ।
कथमन्यथा ।। ३४ ।।
प्रचेतने यतो रूपं शोभायकिल केवलम् । सम्बन्धेन बिना चेत्थं नानुराग बिभितम् ।। ३५ ।।
मात्र शोभा के लिए चित्रित किया गया यह अचेतन चित्र इतना अनुराग उत्पन्न कर रहा है क्या यह बिना आधार के हो सकता है? नहीं अवश्य ही यह जीवन्त कलिका है तभी बिना सम्बन्ध के मुझे अनुरंजित कर रही है ।। ३५ ।।
भुज्यते यदि संसारे सौख्यं विषय गोचरम् । तवानन्दनिषामेन सामेवं विषेन हि ।। ३६ ।।
यदि संसार का सुख भोगना ही हो तो इसी के साथ भोगना सार्थक है अन्यथा विषय जन्य भोगों से कोई प्रयोजन नहीं है । अन्यत्र भोगानन्द - की प्राप्ति नहीं हो सकती ।। ३६ ।।
[ ३१