Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
हो गया, विचारने लगा इसकी कार्य सिद्धि अत्यन्त दुःसाध्य है, कुमार की दशा भी इस प्रकार की हो चुकी है ।। ६२ ॥
विधेशन नो जाने कार्य स्यादिह कीदृशम् । तथाप्याश्वा सयामीति सं जगाद सुतं ततः ॥ ६३ ॥
विधाता ही जाने इसका कार्य किस प्रकार का होगा, न जाने साध्य है या प्रसाध्य, जो हो इस समय इसे पाश्वासन ही देना उचित है। विश्वास दिलाता हूँ। इस प्रकार मन में विमृश्य, वह पुत्र से कहते लगा ।। ६३ ।।
मुञ्च खेदं महाबुद्ध मानसं सकला: क्रियाः ।। कुरू स्नानादिकाः शीघ्र पूरयेतव वाञ्छितम् ॥ ६४ ॥
हे महा माग ! खेद का परित्याग करो, प्रसन्न हो अपनी स्नानादि समस्त क्रियाओं को यथा विधि करो, हे मनोहर ! शीघ्र तुम्हारे मनोवाञ्छित कार्य को पूरा करूगा ।। ६४ ॥
यवोह राज कन्यापि खेचरी वापि सुन्दरी । उत्संग सङ्गता पुत्र करिष्यामि तथाऽपि ते ।। ६५ ।।
जिस पर तुम्हारा मन मुग्ध हया है वह राजकन्या हो, अथवा विद्याधर कन्या रहे या अन्य सुन्दरी कन्या हो, हे प्रिय, शीघ्र ही में तुम्हारा उसके साथ सङ्गम कराऊंगा । अर्थात विधिवत् भागमानुकूल विवाह कराऊँगा॥ ६५ ॥
कार्यान्तरं परित्यज्य तथा यस विषास्यते । मया यत्नो यथा तथ्यो निष्पत्यैव भविष्यति ॥६६॥
हे पुत्र ! मन्य समस्त कार्यों का त्याग कर प्रथम वह कार्य करूंगा जिससे तुम्हारे मनोरथ की सिद्धि होगी ।। ६६ ।।
समाश्वास्येति तं श्रेष्ठो स जगाम तवालयम् । तो पिलोक्य ततस्तेन विस्मितेन धूतं शिरः ॥ ६७ ।।
इस प्रकार पुत्र को प्राश्वासन देकर तथा कहाँ उसका मन अड़ा है यह वृतान्त ज्ञात कर श्रेष्ठी प्रानन्द से जिनालय में गया और उस