Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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साक्षात् रति स्वरूप चित्रिता को देख पाश्चर्य से सिर हिलाने लगा। विस्मय से वह हतप्रभ सा हो गया और विचारने लगा ।। ६७ ।।
मिएकातिक्षाविनी कामियम विमोहकम् । लउजाकरमिदं चास्य लावण्यं विश्व योषिताम् ॥ ६८ ॥
विश्व की कान्ति को तिरस्कृत करने वाली इसकी सौम्य कान्ति है, विश्व-संसार मोहक रूप राशि है, अतिशय लज्जापूर्ण मनोहर मुख है, समस्त लोक की ललनामों का लावण्य स्वरूप है यह ।। ६८ ॥
प्रति बिम्बमिदं यस्या सास्ति काचन सुन्दरी। प्रदृष्टमीवृशं रूपं निर्मातुं न हि शक्यते ॥६६॥
इसका प्रतिबिम्ब इतना मोहक एवं प्राकर्षक है तो साक्षात् कितनी मनोहर न होगी ? इस प्रकार का रूप अदृष्ट निर्मित नहीं हो सकता । अर्थात् मात्र काल्पनिक प्राकृति इस प्रकार उत्कीर्य नहीं की जा सकती। अवश्य ही कोई सुन्दरी कन्या होना चाहिए ।। ६६ ।।
युक्तं यत्र पुत्रस्य मनोलीनम जायत । यवस्या दर्शनान्तेऽपि नूनं मुश्यन्ति नाकिनः ॥ ७० ॥
मेरे पुत्र का मन इसमें लीन हुअा है यह युक्ति युक्त ही है । क्योंकि इसके देखने मात्र से मनुष्य क्या देव भी मुग्ध हो जायेंगे । अर्थात् देवों का मन भी चुराने वाली है यह ।। ७० ॥
एवं विधेऽपि यच्चित्रं नानुराग भरालसम् । समग्र रस शून्यात्मा नरः पाषाण एव सः ।। ७१॥
इस प्रकार का समस्त रसों का सामंजस्य अद्भुत चित्र देख कर यदि किसी मनुष्य का चित्त द्रवित नहीं हो तो वह मनुष्य नहीं शून्यात्मा पाषाण ही है ॥ ७१ ।।
संभाग्येति समाहूत स्तेनाऽसौ येन शिल्पिना। कृता सा सोऽपि संपृष्टः केयं क्यास्से व कोशी ।। ७२ ॥
इस प्रकार नाना तों से विमृश्य-विचार कर उस सेठ ने इस चित्र | को चित्रित करने वाले शिल्पी को बुलवाया तथा "यह कन्या कौन है ? कहाँ है और कैसी है" प्रश्न पूछे ।। ७२ ॥ ३८ ]