Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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पाललम्बेव तत स्सस्या: सा माहु लतिका कमात् । समस्त भूवनभ्रान्त बान्तानंग मृगाश्रयम् ॥ २६ ॥
दोनों दीर्घ बाहू लता के समान लटक रहीं हैं, समस्त भवन-लोक को भ्रान्ति उत्पन्न करने में पूर्ण समर्थ है । कामवाण से श्रमित कामीजनों के श्रम को अपनयन करने में एक मात्र प्राश्रय है ॥ २६ ॥
रति कामपिसा लेने लावण्यातिशयान्धिते । मुखेन्दी मदनादास दाह शान्त्यायनी यया ॥ २७ ।।
किसी भी प्रकार लावण्य के अतिशय से समन्वित होने से रति को प्राप्त किया है उसी प्रकार मुखरूपी चन्द्र पर मदनदाह को शान्त करने वाली अपूर्व शान्ति झलक रही है ।। २७ ।।
शपाले पुनस्तस्याः कामपाश चापरे । बदामृगोच सात्यन्तंगन्तुभन्यत्र नाशकत ॥ २८ ।।
उसके केशपाश मानों काम जाल ही हैं इसके व्यामोह में बद्ध मन अन्यत्र जाने में समर्थ नहीं हो सकता है ।। २८ ।।।
कान्ति लावण्य सप सौभाग्यातिशया इमे । प्रतिच्छन्वेप्यहो यस्माः सा स्वयं ननु कीवृशो ॥ २६ ॥
इसके चित्र में कान्ति, लावण्य श्रेष्ठ रूप, सौभाग्य, उत्तम चिन्ह इस प्रकार आकर्षक चित्रित है वह स्वयं तो न जाने कितनी अनुपम सुन्दरी होगी ।। २६॥
कवापिने संपन्नो विकारो मम चेतसः । एतस्या दर्शनाख्नेयमबस्वा मम तंते ॥ ३० ॥
प्राज तक मेरे मन में कभी भी विकार उत्पन्न नहीं हुमा प्राज इसके देखने मात्र से मेरी यह अवस्था हुई है अन्य की तो बात ही क्या ? ॥ ३० ॥
किमिदं पूर्व सम्बन्ध प्रेम दुषित स्फुटम् । येम बासा ममैवेयमासेममक शंना ॥ ३१ ॥ यह विचारने लगा, क्या इसके साथ मेरा पूर्व भव का प्रेम सम्बन्ध
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