Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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जिस प्रकार उसके दादा ग्रादि वंश परम्परानुसार प्रज्ञा सम्पन्न थे उसी प्रकार यह भी प्रज्ञाजीवी हुमा ।। ६४ ॥
तनौ तस्य ततश्चक्रे यौवनेन तथा पदम् । अनङ्गन यथा स्त्रीषु संमोहायुध मावषौ । ६५ ॥
अब वह किशोर अवस्था परित्याग कर यौवनावस्था में प्रविष्ट हुप्रा । कामदेव के समान स्त्रियों में सम्मोह उत्पन्न करने वाले साक्षात् कामवारणों को मानों धारण किया ।। ६५ ।।
गगनमिव शीतांशो रश्मिभिः सतपोभि । यतिरिव नर नाघो म्याय मार्ग रूपेतः ॥ ६६ ।।
जिस प्रकार माकाश में चन्द्र शोभित होता है, श्रेष्ठ तप के द्वारा यति और न्याय मार्गानुसार चलने से नृपति शोभित होता है उसी प्रकार यह यौवन भार से अलंकृत हुआ ।। ६६ ॥
तरिव मब पुष्पै. राज हंसः समन्तात् । सर इव शुशुमेऽसौ पिमै सागर ।। 3 ||
नवीन पल्लवों एवं पुरुषों से तरु-वक्ष, राजहंमों से परिवेष्टित सरोवर के समान यह कुमार यौवन रूपी लालित्य से शोभायमान हुप्रा ॥ १७ ॥
सकल सुभगः सीमा माननीयो जनानाम । बिनपति पव भक्तो भव्य वात्सल्य सक्त: ।। कल कमल विवस्वान् कीति चोवी सरस्थान । अनुपम गुरग राशिश्चन्द्र सौम्यो ननन्दः॥ १८ ॥
श्रेष्ठ सून्दर, शोलवती स्त्री समस्त जन-समुदाय को मान्य होती है, जिनेन्द्र प्रभ के चरण कमल का भक्त सभी का वात्सल्यपात्र हो जाता है, सूर्य सरोवरों में पा राजि को विकसित कर कीति भाजन होता है उसी प्रकार जिनदत्त कुमार अपने कला-कौशल, ज्ञान-विज्ञान एवं सरल सौजन्य से सर्वजनों को प्रानन्द उत्पन्न करने में समर्थ हा। अर्थात् सबका स्नेह भाजन बन गया ॥१८॥
इति प्रथमः सर्ग:
२४ ।