Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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नाना चित्रकलाओं के कौशल के साथ वृद्धिगत होने लगा। जिस प्रकार प्रातः उदित होते ही भास्कर अपनी कोमल अरुण किरणों से सरोवर में मुदित कमलों को मुकलित कर देता है विकसित कर देता है उसी प्रकार जिनदत्त वालक ने अपने परिवार के सदस्यों को अपनी बालसुलभ कोढ़ाओं से प्रमुदित कर दिया था ।। ८६ ।।
सत्यजे भाग गर्भामं तनुजा तेन शनैः शनैः सदाचार पुरुषेच शनै: शनै: उसने गर्भ से उत्पन्न होने वाली प्रर्थात् बालावस्था में प्रवेश किया। सदाचारी करता बढ़ने लगा ।। ६० ।।
शंशवं । केतथम् ॥ १० ॥
माभा को त्याग दिया पुरुषों के साथ क्रीड़ा
ततोऽसौ श्रेष्ठिना तेन श्रावकस्य महामतेः । समर्पित: प्रयश्नंन पठनाय
ष
॥ ६१ ॥
श्रावकोत्तम श्रीमान् सेठ ने अपने सुयोग्य पुत्र को योग्य उपाध्याय को समर्पित किया । यथाविधि पढ़ने को भेजा। महामति ज्ञाभी सेठ ने पुत्र का विद्यारम्भ संस्कार सविधि सम्पन किया । ६१ ।।
वासरंगखितं रेव सवं KITES महार्णवम् । सततार महा वृद्धिनाथा विनय सङ्गतः ।। ६२
।।
कुछ ही दिन व्यतीत होने पर उस कुशाग्र बुद्धि बालक ने सम्पूर्ण शास्त्रों को हृदयस्थ कर लिया। अपनी विनय रूपी मौका द्वारा उस बालकुमार ने सर्व शास्त्र रूपी महासागर को पार कर लिया। प्रर्थात् सम्पूर्ण कलाओं में पारङ्गत हो गया ।। ६२ ।।
शस्त्राण्यपि ततस्तेन विज्ञातानि महात्मना । धनुरादीनि यत्नेन समाराध्याशु तद्विदः ।। ३ ।।
शस्त्र विद्या का भी पारगामी हुआ। शीघ्र ही वह महात्मा धनुविद्या आदि में परमयत्न से निपुण हो गया । धर्षात् समस्त शस्त्र कलामों में नैपुण्य प्राप्त कर लिया ।। ६३ ।।
प्रागस्त्यं किमपि प्राथ व्यवहार विधौ तथा । यथा तातादयस्तस्य माता: प्रज्ञातु शिविमः ॥ ६४ ॥ व्यवहार विधि-लौकिक व्यवहार में भी वरकृष्ट योग्यता प्राप्त की ।
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