Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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किसी एक दिन वह अद्ध विकसित कलिका-कुमार अपने मण्डन एवं संगीतकार मित्र मण्डली के साथ जिनालय में गया। यह जिन भवन करोड उत्तुंग शिखरों से युक्त था, नाना विध चित्रकला, शिल्पकला, नक्काशी कला से परिव्याप्त था अति विशाल और उत्तुंग था ।। १५ ॥
सोपान पदवी दिल्यां समारहय ततः स्थितिः । दर्श क्षणमात्रं सद्वार मण्डपमुत्तमम् ॥ १६ ॥ .
इसकी अनुपम कला निरीक्षण करता हुमा कुमार शनै: शानः सोपान सिढीयों पर चढ़ने लगा । द्वार मण्डप पर पहुँचा । उस उत्तम द्वार मण्डप की श्री-शोभा को देख सहसा वहीं स्थित हो गया-खड़ा हो गया ||१६||
यावन्तत्र जगत्सार शिल्पि कल्पित रूपके ।
दत्त दृष्टि रसौ तावद् ईष्टका शालभमिका ।।१७।। विस्मित कुमार क्रमशः उस मण्डप की एक-एक कलात्मक चित्रों को मिनिमेष दृष्टि से देखने लगा शिल्पियों की कल्पना के रूपों के देखते देखते सहसा उसकी सरल निर्विकार दृष्टि एक अनुपम रूप राशि की पुत्तलिका-प्राकृति से जा टकरायी ॥ १७ ॥
तस्यादर्शन मात्रेण पित्तन्यस्त इव स्थितः । पपो रूपामृतं चास्या: स्तिमितायत लोचनः ।। १८ ॥
उस पर दृष्टि पडते ही वह मन्त्र मुग्ध सा प्रचल हो गया मानों उस प्रतिच्छाया को हृदय में प्रविष्ट कराना चाहता हो । वह मुस्कराता हमा उसके रूपामृत का पान करने लगा ॥ १८ ॥
ततस्तस्य सकामस्य पतिता पारपायोः। वृष्टिमृगीव संसक्ता स्पन्दनेपि पराङ्ग-मुखो॥१६॥ उसके चरणकमल मानों कामदेव से सेवित थे दृष्टि साक्षात मृगी के समान चञ्चल थी, उसे देखने वाला हिलने में भी समर्थ नहीं हो । सकता ऐसा उसका लावण्य था। वह देखता रहा और सोचता रहा उसके प्रत्येक अवयव के अतुल राग रस भरे सौन्दर्य के विषय में ॥ १६ ।।
निधाय कसशेनेव नितम्बेन मनोभवः । .. पाटीतट समाकृष्टा संप्राप्ता कम योगतः ॥२०॥