Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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तां निशम्य महाशोक शकुनेव ह्ता हृदि । चिन्तयामास साध्वीति बास्प पूरित विलोचना ।। ६० ।।
इस कथा को सुनकर
सनी का हृद
गया, उसके कमलनयन अधुविगलित हो गये, मुख म्लान हो गया और वह चिन्तातुर हो शोक सागर में डूब गई ।। ६० ।।
प्रशोकस्त के नेव यौवनेन रागिरणाकेवलं किन्तु न यत्र फल
ममासुना । संभवः ।। ६१ ॥
वह विचारने लगी, श्रोह मेरा जीवन प्रशोक वृक्ष के समान हैमात्र सुन्दर पल्लवों का गुच्छा समान यौवन है, यह रागियों को प्रेमोत्पादक है परन्तु फल रहित होने से निस्प्रयोजन है ।। ६१ ।।
वारिधे रिब लावण्यं विरसं मम सर्वथा । न यत्रापत्य पद्यानि तेन कान्स जलेन
किम् ।। ६२ ।।
सर्वथा व्यर्थ है । उस
कमल समूह न खिले
मेरा लावण्य सागर के खारे जल के समान सुन्दर सरोवर के जल से भी क्या प्रयोजन जिसमें हों अर्थात् पुत्र के समान कमल विहीन सरोवर शोभा रहित है उसी प्रकार मेरा सौन्दर्य रस पुत्र न होने से बिरस ही है ।। ६२ ।।
नाममात्रेण सा स्त्रीसिगुरण शून्येन कीर्त्यते । पुत्रोपस्थान या पूसा यथा शक्र वधूटिका ।। ६३ ।।
पुत्रोत्पत्ति नारी का गुण है इसके बिना वह "स्त्री" केवल नाम मात्र की पत्नी है । यथा इन्द्र वधूटी । इन्द्राणी हुयी तो क्या कुल वर्द्धन करने में वह समर्थ नहीं है । अथवा सर्प की बांबी से भी निकलने वाली धूम को शक्रवधूटिका कहते हैं किन्तु उसमें वधु के गुण हैं क्या ? नहीं । नाम मात्र की वधूटिका है ।। ६३ ।।
प्रसादपि न मे भर्तुः शोभायें सूनुना विना । शस्यानु शाशने नंब विद्वत्ताया बिज़भितम् ॥ ६४ ॥
यद्यपि पत्तिदेव का मुझ पर प्रपूर्व प्रसाद है- प्रेम है किन्तु शुनु-पुत्र बिना वह भी मेरी शोभा बढ़ाने वाला नहीं है । केवल शब्दानुशासन में = प्रयुक्त विद्वत्ता व्यापक नहीं हो सकती ।। ६४ ॥
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