Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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प्रार्थना
सपरिच्छ्वा ।
जगामासौ प्रातरेव जिनालयं ॥ ५५ ॥
ग्रहोस गंधपुष्पावि अर्थकदा
एक दिन प्रात:काल सेठानी जीथंजसा स्नानादि से निवृत्ति पाकर, शुद्ध गंध, पुष्पादि भ्रष्ट द्रव्य पूजा द्रव्य - सामग्री लेकर सपरिवार जिनालय में गई ।। ५५ ।।
त्रिः परस्य ततः स्तुत्वा जिनों च चतुराशया । संस्थाप्य पूजियित्वा चन्द्रमा यति संसदम् ।। ५६ ।।
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प्रथम त्रिकरण शुद्धि पूर्वक जन्म जरा मरण विनाशक तीन प्रदक्षिणा - परिक्रमा लगाईं । पुनः स्तुति की। स्तवन कर चतुर्मुखी प्रतिमा स्थापन कर साभिषेक भक्ति से पूजा की। सत्पश्चात् यतियों की परि में गई र्थात् में विराजमान मुनिराजों के दर्शनार्थ सभा में गई ।। ५६ ।।
अस्ति यत्र समस्तार्थ भाषी दिव्यावषीक्षणः । गुणचन्द्र गुरुराश्धोशो भव्यांभोरुह
भास्करः ।। ५७ ॥
वहाँ समस्त तत्त्वार्थ के भाषी, दिव्य अवधिज्ञानी श्री गुरणचन्द्र नाम के गरणाधीश श्राचार्य वयं विराजमान थे। ये भव्यरूपी कमलों को प्रमुदित करने वाले भास्कर - सूर्य थे ।। ५७ ।।
तं ससंघं ततो नत्वा निविष्ठा मिकटे कथ्यमानां प्रसङ्गेन कथां पौराणिक
ततः ।
तदा ॥ ५८ ॥
उन यतिराज की ससंघ वन्दना की - नमस्कार किया तथा कुछ निकट ही बैठ गई । धर्मोपदेश चल रहा था, उसी समय प्रसङ्ग के अनुसार प्राचार्य परमेष्ठी एक पौराणिक कथा का वर्णन कर रहे थे । ५८ ॥
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शुभावतां गृहावतां कृता यस्यां प्रशंसा पुत्रत: स्त्रियाम् ।
पुत्राणां प्रबन्धेन नित्योत्पत्तिरपि ध्रुवम् ।। ५६ ।। युगलम् ।।
उसमें उस कथा में पुत्रवन्ती स्त्रियों की प्रशंसा और पुत्र विहीनों की निन्दा का भी प्रकरण बतलाया । निश्चय ही पुत्र विहीना नारी निन्दा की पात्र होती है ।। ५६ ।।
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