Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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यहाँ तो मांगने पर भोग मामग्री प्राप्त होती है किन्तु इसका घर तो स्वभाव में सदा ही भोग सामग्रियों में भरा पड़ा था । दीन, हीनादि याचकजनी की इच्छित दान दता या ॥ ५ ॥
जीवजसे तिविख्याता तस्यासीत् सहचारिणी। यथा ज्योत्स्ना शशाजुस्य व्यासंयमिनो यथा ।। ५१ ।।
इस सेठ के जीवंजसा THIRTAरम सुन्दरी, अतीव सुन्दरी पत्नी थी। यह चन्द्रमा की चांदनी के समान सुन्दर और संयमीजनों के समान दयालु थी ।। ५१ ।।
विशुद्धो भय पक्षाया राजहंसीव मानसम । मुमोचतस्य न स्वच्छ गंभीरञ्च कदाचन ।। ५२ ।।
राजहंमी के समान इसका हृदय उज्ज्वल था अथवा उभय कुल को विशुद्ध करने वाली शुभ भावनापरा थी । इसके हृदय की गम्भीरता और स्वच्छता अचल थी। अर्थात संकटकाल में भी धर्य को नहीं छोड़ती थीघम से पराङ्गमुख नहीं होती थी ।। ५२ ।।
खानिरौचित्य रक्तानां विनयम मजरी । सतो प्रत पताकेव पश्यतां मोहनौषधिः ।। ५३ ॥
यह औचित्य रूपी रत्नों की खान थी, बिनय रूपी वृक्ष की मंजरी सदृश थी, पतिव्रत धर्म की ध्वजा स्वरूप और देखने वालों को मोहन औषधि थी । अभिप्राय यह है कि धन पाकर प्रायः व्यक्ति मदोन्मत्त, महंकारी और व्यसनी हो जाता है किन्तु इस सेठानी का जीवन इसका पंपवाद था । अतुल वंभव होते हुए भी यह विनम्र थी, सीता समान सती और सर्वजन वल्लभ-प्रिय थी अर्थात् अपने मधुर व्यवहार से सबकी प्रियपात्र थी।। ५३ ॥
फेलिकोपासरायं स भञान: सुखमुसमम् । विनानि गमयामास पार्जिम कोधिवः ॥ ५४ ॥
इस प्रकार यह दम्पत्ति निरन्तर निर्विघ्न नाना भोगों, क्रीड़ानों और मनोरथों के साथ धर्म पुरुषार्थ की वृद्धि करते अर्थोपार्जन सहित समय यापन करने लगे । अत्यन्त चतुर वणिक पति अपना काल सुखपूर्वक यतीत कर रहे थे ।। ५४ ॥
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