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जैसा कर्म करेंगे । फिर क्या जरूरत है कि प्रार्थना वगैरह करके अपने समयको नष्ट करें और चिन्ता करें। यदि ईश्वर कर्मफलको कम जियाह भी कर सकता है और करता है तो न्यायवान् न रहा । सत्र कुछ प्रार्थना वगैरह पर ही रहा । घोरसे घोर पाप करके प्रार्थना कर ली जाय, क्षमा हो जायगी और ऐसा होनेसे अच्छे बुरे कर्मों का कुछ भी विचार न रहेगा । इससे जाहिर है कि ईश्वर फलदाता नही है। ईश्वर मानना सर्वथा प्राण - बाधित और युक्ति-शून्य है । क्योंकि यदि ईश्वरको कर्मफलेढाता माना जाय, तो जीव कर्म करने में भी कदापि स्वतंत्र नहीं हो सकता । जैसे किसी जीवने कोई ऐसा कर्म किया कि जिसका फल यह होता है कि उसका धन नाश हो जाय, ऐसा होने मे कोई इश्वर साक्षात् तो कर्मफल देता ही नही कितु किसी दूसरेके ही द्वारा दिलाता है | मान लिया जाय कि ईश्वरने किसी चोरको भेजकर उसका धन चुरवा लिया और किसीके द्वारा कुछ कष्ट दिलवाया जिससे उस जीवको उसके कर्मोंका फल प्राप्त हुआ । अगरचे चोर या और कोई जिसके द्वारा कर्मका फल मिला ईश्वरकी आज्ञा पालनेसे सर्वथा निर्दोष हैं । परन्तु उसको भी दण्ड मिलता है और बुरा कर्म करनेके कारण ईश्वरका भी अपराधी ठहरता है । इस तरह डबल सजा मिलती है । संसार मे राजाके नौकरको राजाकी आज्ञानुसार अपराधीको दण्ड देने से किसी
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