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( १८४) बैठते हैं, क्योंकि इसके अभ्यन्तर मलमूत्र, रुधिर राध, सर्व गंधमय पदार्थ हैं फिर मृत्युके पीछे इसका कोई भी अवयव काममें नहीं आता, परंतु देखनेको भी चित्त नहीं करता। फिर यह शरीर किसी प्रकारसे भी पवित्रताको धारण नही कर सक्ता, केवल एक धर्म ही सारभूत है अन्य इस शरीरमें कोई भी पदार्थ सारभूत नहीं है क्योंकि इसका अशुचि धर्म ही है। इस लिये हे जीव ! इस शरीरमें मूञ्छित मत हो, इससे पृथक् हो जिस करके तुमको मोक्षकी प्राप्ति होवे ॥
आस्रव भावना॥ राग द्वेष मिथ्यात्व अव्रत कषाययोग मोह इनके ही द्वारे शुभाशुभ कर्म आते है उसका ही नाम आस्रव है और आतंध्यान, रौद्रध्यान इनके द्वारा जीव अशुभ काँका संचय करते हैं तथा हिंसा, असत्य, अदत्त, अब्रह्मचर्य, परिग्रह, यह पांच ही कर्म आनेके मार्ग है इनसे प्राणी गुरुताको प्राप्त हो रहे हैं
और नाना प्रकारकी गतियोंमें सतत पर्यटन कर रहे हैं। आप ही, कर्म करते हैं आप ही उनके फलोंको भोग लेते हैं। शुभ भावोंसे शुभ कर्म एकत्र करते है अशुभ भावोंसे अशुभ, किन्तु अशुभ काँका फल जीवोंको दुःखरूप भोगना पड़ता है, शुभ कर्मोंका सुखरूप फल होता है । इस प्रकारसे विचार करना उसका ही नाम आस्रव भावना है ॥