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अज्ञात नही थे इस लिये उन ही की परम्पराय उपर चलना हमारा धर्म है । इस नयके मतमें कुलाचारको ही धर्म माना गया है २ || व्यवहार नयके मतमें धर्मसे ही सुख उपलब्ध होते हैं और धर्म ही सुख करनेदारा है इस प्रकार से धर्म माना है क्योंकि व्यवहारनय बाहिर सुख पुन्यरूप करणीको धर्म मानता है - ३ | और ऋजुसूत्र नय वैराग्यरूप भावको ही धर्म कहता है सो यह भाव मिथ्यात्वीको भी हो सक्ते हैं अभव्यवत् ४ ॥ अपितु शब्द नय शुद्ध धर्म सम्यक्त्व पूर्वक ही मानता है क्योंकि सम्यक्त्व हो धर्मका मूल है सो यह चतुर्थ गुणस्थानवत्र्त्ती जीवों को धर्मी कहता है ५ ॥ समभिरूढ नयके मतमें जो आत्मा सभ्यग् ज्ञान दर्शन चारित्र युक्त उपादेय वस्तुओं ग्रहण और हेय ( त्यागने योग्य पदार्थों का परिहार, ज्ञेय ( जानने योग्य ) पदार्थोंको भली प्रकार से जानता है, परगुणसे सदैव काल ही भिन्न रहनेवाला ऐसा आत्मा जो मुक्तिका साधक है उसको ही धर्मी कहता ६ || और एवंभूत नयके मतमें जो शुद्ध आत्मा कर्मोंसे रहित शुक्ल ध्यानपूर्वक जहां पर घातियें कर्मोंसे रहित आत्मा ऐसे जानना जोकि अघातियें कर्म नष्ट हो रहे हैं उसका ही नाम धर्म है ७ ॥