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जाता है क्योंकि इन्द्रिय निर्बल होनेपर इन्द्रियजन्य ज्ञान भी प्रायः परिवर्तन हो जाता है, अपितु ऐसे न ज्ञात कर लिजीये इन्द्रियें शून्य होनेपर ज्ञान भी शून्य हो जायगा । आत्मा ज्ञान एक ही है किन्तु कर्मोंसे शरीर की दशा परिवर्तन होती है, साथ ही ज्ञानावर्णी आदि कर्म भी परिवर्तन होते रहते है परंतु यह वार्त्ता मतिज्ञानादि अपेक्षा ही है न तु केवलज्ञान अपेक्षा । सो इसको परिणामिका बुद्धि कहते हैं ४ । सो यह सर्व बुद्धियें मतिज्ञानके निर्मल होनेपर ही प्रगट होती हैं, किन्तु सम्यग् दृष्टि जीवोंकी सम्यग् बुद्धि होती है मिथ्यादृष्टेि जीवों की बुद्धि भी मिथ्यारूप ही होती है अर्थात् सम्यग् दर्शीको मतिज्ञान होता है मिथ्यादशको मतिअज्ञान होता है, इसका नाम मतिज्ञान है ||
और श्रुतज्ञानके चतुर्दश भेद हैं जैसे कि - अक्षरश्रुत १, अनक्षरश्रुत २, संज्ञिश्रुत ३, असंशिश्रुत ४, सम्यग्श्रुत ५, मिथ्यात्व श्रुत ६, सादिश्रुत ७, अनादिश्रुत ८, सान्तश्रुत (सपर्यवसानश्रुत) ९, अनंतन १०, गमिकश्रुत ११, अगमिकश्रुत १२, अंगम - विष्टश्रुत १३, अनंगप्रविष्टश्रुत १४ ॥
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भाषार्थ :- अक्षरश्रुत उसका नाम है जो अक्षरोंके द्वारा
नकर ज्ञान प्राप्त हो, उसका नाम अक्षरश्रुत है | (२) अनक्षर