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कर्म से क्षत्रिय २ कर्मसे वैश्य ३ कर्मसे शूद्र ४ जीव हो जाता है । किन्तु मनुष्य जाति एक ही है, क्रियाभेद होनेसे वर्णभेद हो जाते हैं || सर्व योनियोंमें मनुष्य भव परम श्रेष्ठ है जिसमें सत्यासत्यका भली भांतिसे ज्ञान हो सक्ता है और सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन, सम्यग् चारित्रके द्वारा मुक्तिका कार्य सिद्ध कर सक्ता है | किन्तु सम्यग् ज्ञान के पंच भेद वर्णन किये गये हैं जैसेकि - मतिज्ञान १ श्रुत ज्ञान २ अवधि ज्ञान ३ मनःपर्यव ज्ञान ४ केवल ज्ञान ५, अपितु मति ज्ञानके चतुर भेद है जैसे किअवग्रह १ ईहा ३ अवाय ३ धारणा ४ ||
( १ ) इन्द्रिय और अर्थकी योग्य क्षेत्रमें प्राप्ति होने पर उत्पन्न होनेवाले महा सत्ता विषयक दर्शनके अनन्तर अवान्तर सत्ता जातिसे युक्त वस्तुको ग्रहण करनेवाला ज्ञानविशेष अग्रवह कहलाता है || (२) अवग्रहके द्वारा जाने हुए पदार्थमें होनेवाले संशयको दूर करनेवाले ज्ञानको ईहा कहते हैं, जैसेकि अवग्रहसे निश्चित पुरुष रूप अर्थमें इस प्रकार संशय होने पर कि " यह पुरुष दाक्षिणात्य है अथवा औदीच्य ( उत्तरमें रहनेवाला ) " इस संशय दूर करनेके लिये उत्पन्न होनेवाले ' यह दाक्षिणात्य होना चाहिये ' इस प्रकार के ज्ञानको ईहा कहते हैं ॥ (३) भाषा आदिकका विशेष ज्ञान होने पर उसके यथार्थ स्वरूपको ।