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( ३६ ) णगप्प आपका भालचन्द्र ही सुनेगा और कोई प्रामाणिक न मानेगा, और जो शास्त्रिजी ने कहा की हाथी का आत्मा कीट में कैसे जायगा और कीटस्थ जीव हाथी में कैसे जायगा यह भी शास्त्रीजी की शङ्का गलत है. क्योंकि सब लोग आवालगोपाल यह अनुभव करते हैं की एक बड़ा भारी दीपक जिसमे बहुत प्रकाश हो, उसको लाकर बड़े कमरे में रखिये तो उसका सारा प्रकाश सारे कमरे में फैल जायगा,
और उसी बडा भारी दीपक को एक छोटी पर्णकुटी में रखिये तो वह प्रकाश का दृश्य और कुछ हो जायगा याने इससे यह सिद्ध होता है की प्रकाश तो दोनों स्थल में समान ही है किन्तु जिसको जितना फैलने के लिये स्थान मिलता है उतनाही फैलता है इसी तरह आत्मा का कोई भी मान नहीं है, किन्तु उसमें यह एक प्रकार की शक्ति है की जहां जितना स्थल वहां उसका उतनाहा पसरना होता है इसलिये शरीरी आत्मा का प्रमाण जिस शरीर में वह है उतनाही है ऐसे सिद्धान्त में कुछ बाधाही नहीं होती है. मुझे हँसी आती है कि जो लोग, जो ऋषी यह कहते हैं कि आत्मा का परिमाण महत् है तो वे ऋषी महाशय कणाद, गौतम, गङ्गाधरजी प्रभृति गज लेकर क्या आत्मा को नापने गये थे? हरगिज नहीं, परन्तु यह झूठा जाल पसार कर बिचारे अज्ञानी प्राणिओं को दुर्मार्ग दिखला-ए वे गृहविजयी बनते है. पाठकगण ! और भी इसी विषय में कुछ