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दार्थों से होता है सो भ्रान्त, मिथ्या नहीं है, उसी तरह आपका व्यापक आत्मा भी उपाधि से जो शरीर में ही प्रमाणित होता है सो भी असत्य नहीं है। अब तो आपका आत्मा व्यापक है, और उपाधि से छोटा है यह. दोनों बात आपके अभिप्राय से सिद्ध हो चुकी तब भला आपके मत में एक आत्मा में दो विरुद्ध धर्म कैसे रह सकता है ? क्योंकि मी० व्यासजी ने लिखा है कि "नैकस्मिन्नसभवात्" याने असंभव होने से एकही पदार्थ में प्रकाश और अन्धकार कि तरह दो विरुद्ध धर्म नहीं ठहर सकते है, तब भला आप क्या करियेगा ? क्योंकि आपने पूर्वोक्त युक्ति से दोनों बात ( उपाधि जन्य लधुत्व, व्यापकत्व ) सिद्ध किया है, यदि दोनों ही एक ही आत्मा में आप मानें तो आपके प्रपितामह के वचन पर पोचा फेर जायगा, और यदि एकही आत्मा में यह दोनो बात को आप न माने तो आप प्रमाणसिद्ध वस्तु के अपलापी की पदवी से विभूषित किये जायगे. पाठकगण | अब यह बूढे ब्राह्मण को "इतो नदी इतो व्यात." यह दशा हुई है, अब भी जो वे माने की जड़ चेतन सब पदार्थों में परिणाम हुआ ही करता है और कोई भी कूटस्थ नित्य नहीं है सब वस्तु सापेक्ष नित्यानित्य है. और आत्मा का कोई भी नियत परिमाण नहीं है तब तो ये बच सकते है, अन्यथा प्रामा
और सायन्सवेत्ता यह ब्राहण की हसी उडायेंगे पाठक महाशय !