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(१०) कीयानन्त भेदयुक्तानि भवति तानि त्रीणि द्रव्याणि कानि कालः समयादिरनंतः अतीतानागताद्यपेक्षया पुद्गला अपि अनंताः ॥ ___ भावार्थ:-धर्म अधर्म आकाश यह तीन ही द्रव्य असंख्यात् प्रदेशरूप एकेक है अपितु आकाश द्रव्य लोकालोक अपेक्षा अनंत द्रव्य है, यह द्रव्य पूर्ण लोगमें व्याप्त है, अखंड रूप है, निज गुणापेक्षा और कालद्रव्य पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्य यह तीन ही अनंत हैं; क्योंकि कालद्रव्य इस लिये अनंत है कि पुद्गलकी अनंत पर्याय कालापेक्षा करके ही सद्रूप है तथा अनंते कालचक्र भूत भविष्यत काल अपेक्षा भी कालद्रव्य अनंत है और समय आस्थिर , रूपमें है। फिर असंख्यात शुद्ध प्रदेशरूप जीव द्रव्य है अर्थात् असंख्यात शुद्ध ज्ञानमय जो आत्मपदेश हैं वे ही जीवरूप हैं इसी प्रकार अनंत आत्मा है और उनके भी प्रदेश पूर्ववत् ही हैं, अपितु निज गुणापेक्षा शुद्धरूप हैं। कर्म मलापेक्षा व्यवहार नयके मतमें शुद्धआत्मा अशुद्धआत्मा इस प्रकारसे आत्म द्रव्यके दो भेद हैं अपि तु संग्रह नयके मतमें जीव
ही है, जैसे श्री स्थानांग सूत्रके प्रथम स्थानमें यह
(एगे आया) अर्थात् संग्रह नयके मतमै आत्म ही है क्योंकि अनंत आत्माका गुण एक है जैसे सहस्र